M.A.Sem - 4 EC-3 (उपनिषद )
उपनिषद्
डाॅ. जय किशोर मंगल ‘हसादः’
सहायक प्राध्यापक
हो भाषा विभाग, डीएसपीएमयू, रांची।
वैदिक साहित्य में आरण्यक ग्रंथों के बाद उपनिषद् ग्रंथों का क्रम आता है। उपनिषद के अविर्भाव से एक नये युग का सूत्रपात होता है। उपनिषद् वैदिक भावना के विकासरूप हैं। इसके अविर्भाव के कारण भारतीय साहित्य में अनेक परिवर्तन हुए। इस युग में अनेक नये अन्वेषण, नये मान्यतायें और नये चिन्तन हुए। जीवन, जगत और ब्रह्म-विषयक से संबंधित अनेक गूढ़ रहस्यों से पर्दा उठा। हलांकि उपनिषद् में भी वेद से लिये गए मंत्रों को आधार माना गया, फिर भी वेदों और उपनिषदों में जीवन की शाश्वत मान्यताओं के प्रति अपने-अपने ढंग से विचार किया गया है। जन्म, मरण, सन्यास और वैरागय की भावनाओं का सूत्रपात उपनिषद् से ही आरम्भ होती है। यह वैदिक साहित्य का अंतीम भाग है। इसलिए इसे ‘वेदांत’ के नाम से भी जाना जाता है। उपनिषद् ग्रंथों में आत्मज्ञान, मोक्षज्ञान, और ब्रह्मज्ञान की प्रधानता होने के कारण इसको आत्मविद्या, मोक्षविद्या तथा ब्रह्मविद्या भी कहा जाता है। इसके अलावे इसमें धर्म के सूक्ष्म अतिसूक्ष्म स्वरूपों पर भी विचार प्रस्तुत किया गया है। क्योंकि इसके पूर्व वैदिक संहिताओं में धर्म को एकांगी, संकुचित और सर्वथा व्यक्तिगत रूप तक ही सीमित कर दिया गया था। इसलिए वाचस्पति गैरोला मानते हैं कि ब्राह्मण काल वैदिक धर्म की अवनति का और उपनिषद् काल वैदिक धर्म की चरमोन्नति का समय रहा है।
‘उपनिषद्’ शब्द ‘उप’ तथा ‘नि’ उपसर्ग में ‘सद्’ धातु से ‘क्विप’ प्रत्यय जोड़ने पर बनता है। जहां ‘सद’ धातु का अर्थ- विनाश, ज्ञान प्राप्ति तथा शिथिल होना आदि होता है। इन तीनों अर्थों की संगति से उपनिषद् शब्द हो अर्थ होता है ‘‘जो विद्या समस्त अनर्थों को उत्पन्न करनेवाले सांसरिक क्रिया-कलापों का नाश करती है, जिससे संसार की कारणभूत अविद्या के बंधन शिथिल पड़ जाते हैं या समाप्त हो जाते हैं और जिससे ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होती है, वही उपनिषद् है।’’ उपनिषद् के संबंध में आप्टे कृत ‘संस्कृत-अंग्रेजी-कोश’ में कहा गया है ‘उपनिषद्’ शब्द स्त्रीलिंग है। इसकी व्युत्पति उप + नि + पूर्वक सद् (बैठना) धातु से हुई है। इसका सामान्य अर्थ किसी के समीप बैठना होता है। अर्थात् शिष्य के द्वारा ब्रह्म और जीव के संबंध के विषय में रहस्यात्मक सिद्धान्त पर रहस्यत्मक विचार-विनिमय के लिए गुरू के समीप श्रद्धापूर्वक बैठना है।
उपनिषद् के संबंध में विद्वानों ने अनेक भिन्न-भिन्न मत प्रकट किये हैं - शंकराचार्य मानते हैं कि ब्रह्मज्ञान ही उपनिषद् है। वहीं डाॅ. राधाकृष्णन के अनुसार उपनिषदों में भ्रम को नष्ट करने वाले और सत्य तक पहुंचने के लिए योग्य बनानेवाला ज्ञान उपनिषदों में निहित है। विल ड्यूरैण्ट के अनुसार - ‘आधुनिक युग तक जो महत्व ईसाइयों के लिए ‘न्यू टैस्टामेंण्ट’ का रहा है, वही महत्व भारत के लिए उपनिषदों का रहा है।’ शौपेनहाॅवर के अनुसार - ‘संसार में उपनिषदों की भांति लाभदायक और ऊंचा उठाने वाला कोई साहित्य नहीं है। यह साहित्य मेरे जीवन का सहारा रहा है। यही मेरी मृत्यु की सान्त्वना बनेगा।’ डाॅ. विण्टरनिट्ज का मत है कि भारत के उत्तरकालीन दर्शन का मूल उपनिषद् में है। शंकर और रामानुज के दार्शनिक तथा धार्मिक मत आज भी लोकप्रिय हैं, जो इन्हीं पुस्तकों (वेदांत सूत्रों) पर आधारित हैं। आज तक जितने भी दार्शनिक मत तथा धर्म बने हैं, सबके सब उपनिषदीय सिद्धांतों की भूमि की उपज है।’ उपनिषदों के प्रति डुपरेन ने अपना विचार व्यक्त करते हुए लिखा है कि ‘‘वे जीवन तथा समस्त मानवता को उन्नत करने वाले ऐसे प्रकाशपुंज है, जिनकी तुलना विश्व की किसी भी साहित्य से नहीं की जा सकती।’’ डुपेन के इन बातों का समर्थन मैक्समूलर ने भी किया है और उपनिषदों को समस्त मानवता के लिए सबसे बड़ा वरदान कहा है।
इसप्रकार उपनिषद् को किसी एक विद्वान के परिभाषा के आधार पर नहीं बांधा जा सकता है। क्योंकि यह किसी एक शताब्दी की रचना न होकर अनेक शताब्दियों के साहित्यिक प्रयास के फल है। इसमें भारतीय दर्शन का प्रारम्भिक रूप रोचक शैली में प्रस्तुत कि गई है। इनके जीवन, जगत, माया, आत्मा, ब्रह्म, अविद्या आदि दार्शनिक विषयों की गहनता से समीक्षा की गई है। इनमें अनेक कथाओं, वार्ताओं और मिथकों की सुन्दर संयोजना है। उपनिषद में ही जीवात्मा और ब्रह्म तत्व के स्वरूपों का वर्णन मिलता है। इसके अनुसार जीवात्मा और ब्रह्म दोनों एक ही तत्व हैं। इसके आधार पर कहा जा सकता है - ‘‘विश्व ब्रह्म है किन्तु ब्रह्म आत्मा है’’ अथवा ‘‘ ब्रह्माण्ड ईश्वर है तथा ईश्वर आत्मा है।’’ ये अनंत, नित्य, सर्वव्यापी, सर्वज्ञानी और शुद्ध चैतन्य है। प्रकृति की शक्तियां ब्रह्म का अंश मात्र है। सूक्ष्म तत्व ब्रह्म ही समस्त जगत का सत् है। ब्रह्म ही ज्ञान है। ब्रह्मरूपी ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है। अविद्या को बंधन का कारण माना गया है। अविद्या में नित्य और अनित्य का भेद नहीं होता। यही पुनर्जन्म का कारण है। इस ्रपकार ब्रह्म तथा आत्मा की दो कल्पनाओं का उपनिषद में समावेश किया गया है। विश्व के प्रबुद्ध विचारकों द्वारा आत्मा तथा शरीर के संबंध में जो गहन चिंतन और सूक्ष्म विचार प्रकट किया गया है, उसमें उपनिषद साहित्य का अहम भूमिका रहा है। अतः कहा जा सकता है कि ‘उपनिषद् वास्तव में वह आध्यात्मिक मानसरोवर है जिसस भिन्न-भिन्न ज्ञान की धाराऐं निकल कर मनुष्य के सांसारिक उन्नति तथा परलौकिक कल्याण के लिए प्रवाहित होती है।’
वैदिक साहित्य संग्रह में उपनिषदों की संख्या का ठीक से पता नहीं चलता है। किन्तु मुण्डकोपनिषद में 108 उपनिषद् ग्रंथों का ही उल्लेख मिलता है। जिसमें 10 ऋग्वेद से, 19 शुक्ल यजुर्वेद से, 32 कृष्णजयुर्वेद से, 16 सामवेद से तथा 31 अथर्ववेद से सम्बद्ध माने जाते हैं। जिनमें 12 उपनिषद् महत्वपूर्ण हैं जो इस प्रकार हैं- ईशावास्य, केनोपनिषद, कठोपनिषद, प्रश्नोपनिषद, मुण्डकोपनिषद, माण्डूक्योपनिषद, तैत्तिरीयोपनिषद, ऐतरेयोपनिषद, छान्दोग्य उपनिषद, बृहदारण्यकोपनिषद्, कौषीतकि उपनिषद् तथा श्वेताश्वतरोपनिषद्। परन्तु इसके अलाव भी कई सारे उपनिषदों का उल्लेख प्राप्त होता है। अडियार लाइब्रेरी मद्रास से प्रकाशित होने वाले उपनिषद संग्रहों में से एक भाग में लगभग 179 उपनिषदों की उल्लेख मिलती है। उसी तरह गजराती प्रिंटिंग प्रेस, बम्बई से प्रकाशित ‘उपनिषद-वाक्य-महाकोश’ में 223 उपनिषद् गं्रथों की नामावली देखने को मिलती है। इस प्रकार से मूल उपनिषद् कितने थे, इसका ठीक से पता नहीं चलता है। इसका मूल कारण अलग-अलग समय में अलग-अलग रचयिताओं द्वारा रचना करना है।
उपनिषद् तर्क प्रधान ग्रंथ है। इसमें तर्क द्वारा वस्तु की यथार्थता का विवेचना किया गया है। तर्क ही प्रमाण है और वही ज्ञान की उत्पति का स्त्रोत भी है। उपनिषदों में ज्ञान अर्थात् विद्या के परा और अपरा भाग बतलाये गये हैं। अपरा विद्या कर्मप्रधान विद्या है, जिसकी फलोपलब्धि कालांतर में होती है। परा विद्या ही ब्रह्मविद्या है, जिसके प्रतिपादक ग्रंथ उपनिषद है। उपनिषद् भारतीय अध्यात्मशास्त्र का चमकता हुआ रत्न है। जिनकी चमक पर काल का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। जैसे जैसे इसका सूक्ष्म अध्ययन किया जाता है वैसे-वैसे इसका जौहर प्रकट होता जाता है। भारतीय सभ्यता को आध्यात्मिकता की ओर ले जाने का सारा श्रेय इन्हीं ग्रंथ रत्नों को जाता है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इन ग्रंथों में समस्त मानवता के लिए समान रूप से श्रेय और हित की व्यवस्था की गई है। इसलिए महाकवि कालिदास ने इसकी पुष्टि करते हुए ‘रघुवंश’ में लिखा है - ‘‘भगवती भागीरथी के भिन्न भिन्न प्रवाहों का परम लक्ष्य एक ही समुद्र है। वे सब वहां पहुंचकर एक हो जाते हैं। इसी प्रकार ईश्वर प्राप्ति के अलग-अलग शास्त्रों एवं दर्शनों के द्वारा निर्दिष्ट मार्ग भले ही भिन्न-भिन्न हों किन्तु उन सबका एक ही लक्ष्य है- आत्मदर्शन अथवा आत्मप्राप्ति।’’