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Blog image DR. JAI KISHOR MANGAL Shared publicly - Apr 27 2020 2:22PM

B.A.Sem-4 (SEC-2) संस्कृति का सामान्य विषेशताएँ


संस्कृति की विषेशताएं 
डाॅ. जय किशोर मंगल ‘हसादः’
      सहायक प्राध्यापक
हो भाषा विभाग, डीएसपीएमयू, रांची।
 
          संस्कृति शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया जाता है। विभिन्न साहित्यकारों ने सामाजिक आकर्षण एवं बौद्धिक श्रेष्ठता को प्रकट करने के लिए संस्कृति शब्द का प्रयोग किया है। जबकि दार्शनिकों का एक वर्ग नैतिक, आध्यात्मिक एवं बौद्धिक उन्नति को संस्कृति मानते हैं। मानवशास्त्री संस्कृति शब्द का प्रयोग उपर्युक्त अर्थों से भिन्न मानते हैं। डी.एन. मजुमदार एवं टी.एन.मदन ‘लोगों के जीने के ढंग को ही संस्कृति’ मानते हैं।
संस्कृति के लिए अंगेजी में ‘कल्चर’ (Culture) शब्द का प्रयोग किया जाता है। यह शब्द लैटिन भाषा के 'Kulture' शब्द से बना है। जिसका अर्थ प्रशिक्षण एवं परिकरण करना है। कुछ विद्वानों के अनुसार अंग्रेजी भाषा Culture शब्द के अर्थ में संस्कृत भाषा के संस्कृति शब्द का प्रयोग होता है। संस्कृत और संस्कृति दोनों ही शब्द ‘संस्कार’ से बने हैं। संस्कार का अर्थ है कुछ कृत्यों की पूर्ती करना। अर्थात् एक मनुष्य समाज में जन्म लेने के पश्चात् सामाजिकता को प्राप्त करता है। वह जन्म से हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई अथवा किसी अन्य समाज का नहीं कहलाता है। समाज में जन्म लेने के पश्चात् वह जिस समाज के संस्कार विधि से संस्कारित होता  है, वह उस समाज का अंग बनता है। परिणाम स्वरूप उसे अपनी जीवन की विभिन्न भुमिकाओं को निभाने की स्वीकृति मिलती है। उसकी सम्पूर्ण जीवन उस समाज द्वारा प्रदान की गई नियमों, रीति-रिवाजों, विश्वासों एवं मान्यताओं का अनुशरण करता है जो उसकी संस्कृति बन जाती है। अतः संस्कृति एक ऐसे समग्र जीवन की सूचक है, जिसे विभिन्न संस्कारों द्वारा संस्कारित होने के पश्चात् ही प्राप्त किया जा सकता है। इसे परिशोधन प्रक्रिया कहा जा सकता है। 
संस्कृति शब्द का अर्थ अनेक विद्वानों द्वारा अलग-अलग प्रस्तुत किया गया है -
टायलर के अनुसार - ‘‘संस्कृति वह जटिल समग्रता है, जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला, आचार, कानून, प्रथा और ऐसी अन्य क्षमताओं एवं आदतों का समावेश है, जो समाज का एक सदस्य होने के नाते मनुष्य प्रापत करता है।’’
हाॅबल के अनुसार -‘‘संस्कृति सीखे हुए व्यवहार प्रतिमानों का कुल योग है, जो किसी समाज के सदस्यों की विशेषता है जो कि प्राणीशास्त्रीय विरासत की परिणा नहीं है।’’
हर्षकोविट्स ने कहा है - ‘‘संस्कृति पर्यावरण का मानव निर्मित भाग है।’’
लोवी के अनुसार - ‘‘सम्पूर्ण सामाजिक परंपरा को संस्कृति कहते हैं।’’
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि संस्कृति की कोई भी एव सार्वमान्य परिभाषा नहीं है। संस्कृति शब्द इतना जटिल एवं विस्तृत है कि उसकी सार्वमान्य परिभाषा कठिन है। वास्तव में एक समाज विशेष के सम्पूूर्ण व्यवहार-प्रतिमानों अथवा समग्र जीवन विधि को ही संस्कृति के नाम से पुकारा जा सकता है। अर्थात् कहा जा सकता है कि अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतू मनुष्य ने जिन भौतिक एसं अभौतिक वस्तुओं का निर्माण अथवा विकास किया है, वे सब संस्कृति के अंतर्गत समाहित है।
संस्कृति की विभिन्न परिभाषाओं को देखने के उपरांत उसकी कुछ विशेषताओं को चिह्नित किया जा सकता है -
1. संस्कृति मानव निर्मित है - संस्कृति केवल मनुष्य समाज में ही पायी जाती है। मनुष्य में कुछ ऐसी मानसिक एवं शारीरिक विशेषतायें हैं, जैसे - विकसित मस्तिष्क, केन्द्रित की जा सकने वाली आंखें, हाथ और अंगुठे की स्थिति, गर्दन की रचना आदि जो उसे अन्य प्राणियों से अलग करती है। इसी कारण वह संस्कृति को निर्मित एवं विकसित कर सका है। अन्य प्राणियों में मनुष्य के समान इन शारीरिक एवं मानसिक क्षमताओं का अभाव है। जिसके कारण उनमें संस्कृति का निर्माण नहीं हो सका।
2. संस्कृति सीखी जाती है - संस्कृति मनुष्य को अपने माता-पिता द्वारा उसी प्रकार वंशानुक्रमण में प्राप्त नहीं होती, जिस प्रकार से शरीर रचना प्राप्त होती है। संस्कृति मानवों के सीखी हुई व्यवहार-प्रतिमानों का मिश्रण है। एक मनुष्य अपने जन्म के साथ किसी संस्कृति को लेकर जन्म नहीं लेता बल्कि जिस समाज में जन्म लेता है, उसकी संस्कृति को धीरे-धीरे सामाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा सीखता है। हलांकि सीखने की क्षमता मानव के अलावे पशुओं में भी होती है, परन्तु पशु द्वारा सीखा हुआ व्यवहार संस्कृति नहीं बनता। क्योंकि पशु द्वारा सीखा हुआ व्यवहार मानव की तरह सामुहिक नहीं होता अपितु पशु का केवल वह व्यक्तिगत व्यवहार है। अतः वह व्यवहार केवल उस पशु विशेष तक ही सीमित होती है। अतः मनुष्य सीखी हुई सामुहिक व्यवहार की प्रथाओं से जन रीतियों, परंपराओं, रूढ़ियों आदि को जन्म देता है जो संस्कृति कहलाती है। ये केवल मानव समाज में ही पाये जाते हैं पशुओं में नहीं।
3. संस्कृति हस्तांतरित की जाती है - चूंकि संस्कृति सीखी जा सकती है, इसलिए नई पीढ़ी, पुरानी पीढ़ी से सांस्कृतिक ज्ञान प्राप्त करती है। अर्थात् नई पीढ़ी को अपने पूर्वजों के द्वारा अर्जित किया गया ज्ञान का भंडार प्राप्त होता है, जिसमें वे स्वंय का अनुभवों को भी जोड़ते जाते हैं। इस प्रकार से मानव का ज्ञान एवं संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित होते हुए परिष्कृत होती जाती है।
4. प्रत्येक समाज की अपनी विशिष्ट संस्कृति होती है - एक समाज की भौगोलिक एवं सामाजिक परिस्थितियां अन्य समाज से भिन्न होती है। अतः प्रत्येक समाज में अपनी एक विशिष्ट संस्कृति पायी जाती है। समाज अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनेक अविष्कार करता है। अविष्कारों का योग ही संस्कृति को एक नया रूप प्रदान करता है। प्रत्येक समाज की आवश्यकतायें भी भिन्न-भिन्न होती हैं, जो सांस्कृतिक भिन्नता को जन्म देती है।
5. संस्कृति में सामाजिक गुण निहित होता है - संस्कृति किसी विशेष व्यक्ति की देन नहीं है बल्कि सम्पूर्ण समाज की देन होती है। इसका जन्म और विकास समाज के कारण ही हुआ है। समाज के अभाव में संस्कृति की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। कोई भी संस्कृति पंाच, दस या सौ लोगों की प्रतिनिधित्व नहीं करती बल्कि पूरे समाज या समूह के अधिकांश लोगों की प्रतिनिधित्व करती है। संस्कृति के अंश यथा- प्रथायें, जन रीतियां, भाषा, परंपरा, धर्म, दर्शन, विज्ञान, कला आदि किसी एक व्यक्ति की विशेषता नहीं बतलाते बल्कि सम्पूर्ण समाज की जीवन-विधि का प्रतिनिधित्व करते हैं।
6. संस्कृति मानव आवश्यकताओ की पूर्ति करता है - संस्कृति की यह विशेषता है कि वह मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। मानव की अनेक सामाजिक, शारीरिक, आर्थिक एवं मानसिक आवश्यकतायें हैं। उनकी पूर्ति के लिए ही मानव ने संस्कृति का निर्माण किया है। किसी भी संास्कृतिक तत्व का अस्तित्व भी तभी तक बना रहती है, जब तक वह मानव की किसी न किसी आवश्यकता की पर्ति करता है। मानव की आवश्यकता की पूर्ति के लिए समय-समय पर नये-नये अविष्कार होते रहते हैं और वे ही संस्कृति के अंग बनते जाते हैं।
7. संस्कृति परिवर्तनशील होती है - संस्कृति समय, समाज एवं परिस्थितियों के अनुरूप सदैव परिवर्तन होते रहता है। परिवर्तनशीलता संस्कृति का गुण है। विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार संस्कृति अपने आपको बदलते रहती है। पहाड़ी भागों, मैदानों, रेगिस्तानों एवं वर्फीले प्रदेशों में निवास करने वाले लोगों की संस्कृति भिन्न-भिन्न होती है। इसका कारण यह है कि संस्कृति ने अपने आपको भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार ढाला है। वर्तमान भारत की संस्कृति वैदिक संस्कृति से काफी भिन्न है। क्योंकि समय के साथ मनुष्य की आवश्यक्तायें बढ़ती जाती है और उसी के अनुरूप संस्कृति भी परिवर्तित होती है।
8. संस्कृति व्यक्तित्व निर्माण में सहायक होता है - पूर्व में हम देख चुके हैं कि संस्कृति संस्कार से निर्मित है। अर्थात् एक शिशु जन्म लेने के पश्चात् किसी समाज के सामाजिक संस्कारों से संस्कारित होने के पश्चात सामाजिकता को प्राप्त करता है। समाज में रह कर वह अपनी संस्कृति को सीख कर आत्मसात करता है क्योंकि उसका लालन-पालन उसी समाज में होता है। इसलिए एक संस्कृति में पले बढ़े मनुष्य का व्यक्तित्व अन्य संस्कृति के व्यक्ति से भिन्न होता है। इसका मुख्य कारण उसके समाज में प्रचलित रीति-रिवाज, धर्म, दर्शन, विज्ञान, कला, मान्यतायें, विश्वास एवं व्यवहारों की छाप उस मनुष्य के व्यक्तित्व पर पड़ता है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में पला बड़ा मनुश्य किसी विदेशी संस्कृति में पले बड़े हुए मनुष्य से भिन्न होता है।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि संस्कृति जीवन की सम्पूर्ण विधि है। जिसके आधार पर हम सोचते हैं और कार्य करते हैं। संस्कृति में रीतिरिवाज, परंपरायें, पर्व-त्योहार, जीने के तरीके इत्यादि सम्मिलित है। अर्थात् संस्कृति किसी समाज के वे सूक्ष्म संस्कार हैं, जिसके माध्यम से मनुष्य अपनी विचारों का आदान-प्रदान करता है। जीवन के विषय में अपनी अभिवृतियों और ज्ञान को नई दिशा देता है।
 
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