M.A.Sem-4 (EC-3) पुराण
पुराण
डाॅ. जय किशोर मंगल ‘हसादः’
सहायक प्राध्यापक
हो भाषा विभाग, डीएसपीएमयू, रांची।
भारतीय साहित्य के इतिहास में संस्कृत वाङ्मय को दो भागों में बांटा जाता है- वैदिक साहित्य तथा लौकिक साहित्य। वैदिक साहित्य और लौकिक साहित्य को जोड़ने की कड़ी ‘पुराण साहित्य’ है। जब वेदों के अर्थ सामान्य जन के लिए कठिन प्रतीत होने लगे तब वेदों के सुलभ अर्थ ज्ञान के लिए वेदाङ्गों एवं पुराणों की रचना की गई।
पुराण भारतीय साहित्य का गौरव ग्रंथ है। प्राचीन विद्वानों का मानना है कि यदि कोई द्विज चारों वेदों तथा उनके अंगों-उपनिषदों को भले अच्छा ज्ञाता है, यदि वह पुराण का अध्ययन नहीं करता, तो वह व्यक्ति विलक्षण-चतुर तथा शास्त्र कुशल नहीं हो सकता। उनके अनुसार वेद सनातन धर्म के सर्वप्रामाणिक तथा प्राचीन गं्रथ तो हैं ही, परंतु वेद को परिवर्धित करने वाला पुराण ही है। इसलिए इसे ‘वेद का पुरक’ भी कहा जाता है।
भारतीय साहित्य में वेदों के समान ही पुराणों को भी प्राचीन बताया गया है। प्राचीन भक्ति ग्रंथों के रूप में पुराण का महत्व सर्वाधिक है। यह हिन्दुओं के धर्म संबंधी आख्यान ग्रंथ हैं, जिनमें विषयों की कोई सीमा नहीं है। इसमें ब्रह्माण्डविद्या, राजाओं, नायकों, देवी-देवताओं, ऋषि-मुनियों की वंशावली, लोक कथायें, तीर्थयात्रा, मन्दिर, चिकित्सा, खगोलशास्त्र, व्याकरण, खनिज विज्ञान, हास्य, प्रेमकथाओं आदि का वर्णन प्राप्त होता है। इसके अलावे पुराण में कल्पित कथाओं की विचित्रता और इसके रोचक वर्णन द्वारा सांप्रदायिक व साधारण उपदेश भी प्राप्त होते हैं। भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति को जनसाधारण तक पहुंचाने का श्रेय इन्हीं पुराणों को जाता है। छान्दोग्य उपनिषद तथा बौद्ध-ग्रंथों में पुराण को पंचम वेद कहा गया है। ‘अथर्वसंहिता’ के अनुसार ऋक्, साम, छन्द, पुराण तथा यजुः सब एक साथ आविर्भूत हुए। पुराण के संबंध में ‘शतपथ’ ब्राह्मण और ‘बृहदारण्यक’ उपनिषद में कहा गया है कि - ‘जैसे गीली लकड़ी की आग से धुआं निकलता है, उसी प्रकार इस महाभूत से ऋग्वेद, जयुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, इतिहास, पुराण, विद्या, उपनिषद, श्लोक, सूत्र, व्याख्यान निःश्वास रूप में उद्धृत हुए।’
‘ब्रह्माण्डपुराण’ में कहा गया है कि सर्वप्रथम ब्रह्मा ने पुराणों का स्मरण किया। सांगोपांग वेद का अध्ययन करने पर भी जो पुराणों के ज्ञान से रहित है, वह तत्त्वज्ञ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वेद का वास्तविक स्वरूप पुराणों में ही वर्णित है। ‘ब्रह्माण्डपुराण’ के उपर्युक्त तथ्य का उल्लेख करते हुए गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी का मानना है कि कलियुग के आरंभ में मनुष्यों की स्मृति और विचार बुद्धि की दुर्बलता को देखकर महर्षि वेदव्यास ने जहां वेद को चार संहिताओं में विभाजित किया, वहीं पुराणों को भी संक्षिप्त कर अठारह भागों में बांट दिया।
‘पुराण’ शब्द की व्युत्पत्ति अनेक प्रकार से की गई है।
‘पुराणमाख्यानम्’ के अनुसार पुराण शब्द का अर्थ ‘पुराना आख्यान’ होता है। संस्कृत साहित्य में भी ‘पुराण’ का अर्थ ‘पुराना’ माना गया है। सम्भवतः पुराणों की अत्यंत प्राचीनता के कारण ही इसका नाम ‘पुराण’ पड़ा होगा। पुराणों में प्राचीन आख्यानों की प्रचुरता रही है। भारतीय साहित्य में पुराणों के साथ इतिहास का भी नाम जोड़ा जाता है। क्योंकि इसमें इतिवृतों की संख्या भी काफी अधिक है। परंतु सुप्रसिद्ध भाष्यकार सायण और शंकराचार्य जैसे विद्वानों ने इतिहास व पुराण की सत्ता को अलग-अलग स्वीकार किया है।
निरूक्तकार यास्क के अनुसार - ‘‘पुराणं कस्मात् ? पुरा नवं भवति।’’
अर्थात् पुराण अतीत काल में नया होता है।
वायुपुराण में कहा गया है - ‘‘यस्मात् पुरा हि अनति इदं पुराणम्।’’
अर्थात् ‘पुराण’ शब्द की व्युत्पति ‘पुराणात् पुराणम्’ भी है। जिसका तात्पर्य वेदार्थ के पूरण करने के कारण ही इन ग्रंथों को ‘पुराण’ कहा गया है। इसी व्युत्पति के आधार पर जीव स्वामी पुराण को वेद के समान अपौरूषेय मानते हैं। मत्स्य, विष्णु तथा ब्रह्माण्ड आदि महापुराणों में पुराणों का लक्षण इस प्रकार बतलाया गया है -
‘‘सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च।
वंशानुचरितं चैव पुराणां पंच लक्षणम्।।’’
अर्थात् पुराणों में पांच लक्षण यथा सृष्टि की उत्पत्ति, सृष्टि का विस्तार, लय और पुनः सृष्टि, सृष्टि की आदि वंशावली, विविध मनुओं की कालावधि अर्थात् किस किस मनु का समय कब तक रहा और उस काल में कौन सी महत्वपूर्ण घटना घटित हुई? तथा वंशानुचरित सूर्य तथा चंद्रवंशी राजाओं का वर्णन का होना आवश्यक है। परंतु ध्यान से देखने पर इन लक्षणों के अतिरिक्त पुराणों में उपवास, पर्व, ज्योतिष, विज्ञान, शरीर विज्ञान, आयुर्वेद, व्याकरण, ज्ञान, शास्त्रीय प्रयोग आदि बातों का भी उल्लेख मिलता है। इसी कारण ‘अग्निपुराण’ को ‘भारतीय ज्ञानकोष’ कहा गया है। ‘छांदोग्योपनिषद्’ तथा ‘बौद्धों के ‘सुत्तनिपात’ में पुराणों को ‘पंचम वेद’ कहा गया है। वहीं पुराणों में प्राचीन भूगोल का वृहत अंश होने के कारण इसे ‘भुवन-कोश’ की भी संज्ञा दी गई है।
पुराणों के रचना के संबंध में ब्रह्माण्ड पुराण में स्वंय ब्रह्मा को पुराणों का रचयिता माना गया है। इसके अनुसार स्वंय ब्रह्मा ने पुराणों की सृष्टि कर वेदों की रचना की। महाभारत और बौद्ध धर्म पुराण के अनुसार महर्षि वेद व्यास ने पुराणों के रचयिता हैं। पुराणों के रचना काल का विषय विवादास्पद है। क्योंकि पुराणों की रचना किसी एक समय की नहीं है। वैदिक युग से लेकर बारहवीं शताब्दी तक निरंतर उसकी रचना, संक्षिप्त संस्करण, संपादन व संकलन का कार्य होता रहा है।
पुराणों के वास्तविक संख्या के संबंध में प्रसिद्व विदेशी वैज्ञानिक अलबेरूनी ने 1030ई के अपने यात्रा विवरणों में पुराणों की संख्या अठारह बतायी है। 7वीं शताब्दी के आसपास कादम्बरी के रचयिता बामभट्ट ने अपनी रचना में पुराणों का नाम लिखा है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी पुराणों का विस्तृत उल्लेख मिलता है। परंतु ‘मत्स्यपुराण’ तथा ‘शिवपुराण’ के प्रसंग से मनीषियों का मानना है कि आरम्भ में केवल एक ही पुराण की रचना की गई थी। जिसे ब्रह्मा ने वेदों की भांति मुनियों के लिए बनाया था। परंतु व्यास ने इसे जन साधारण ते पहुंचाने के लिए इसे अठारह भागों में विभक्त कर स्वंय प्रवचन किया। इस प्रकार पुराणों की संख्या अठारह मानी जाती है। ये पुराण इस प्रकार से हैं - मार्कण्डेय, मत्स्य, भविष्य, भागवत, ब्रह्माण्ड, ब्रह्म, ब्रह्मवैवर्त, वामन, वराह, विष्णु, वायु (शिव), अग्नि, नारद, पद्म , लिंग, गरूड़, कूर्म तथा स्कन्द।
1. ब्रह्म पुराण - अठारह पुराणों में ब्रह्म पुराण सबसे प्राचीन पुराण है। इसमें प्राचीन माने जाने वाले सभी पुराणों का वर्णन है। इसलिए इसे ‘आदिपुराण’ भी कहा जाता है। मान्यता के अनुसार व्यास ने इस पुराण को सर्वप्र्रथम लिखा था। इसमें उड़ीसा के तीर्थों का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसमें पुरी के समीप कोणार्क में 1241 ई. के बाद निर्मित सूर्यमन्दिर का उल्लेख मिलता है, जिसे प्रमाण स्वरूप आज भी देखा जा सकता है। बम्बई से प्रकाशित ब्रह्म पुराण में श्लोकों की संख्या 13787 बतलाई गयी है।
2. पद्म पुराण - इस पुराण का नाम पद्म पुराण रखा गया है। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने भगवान विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न होकर सृष्टि रचना संबंधी ज्ञान का विस्तार करने के कारण इस पुराण का नाम पद्म पुराण पड़ा। पद्म का अर्थ ‘कमल का पुष्प’ होता है। आठरह पुराणों में इस पुराण को द्वितीय स्थान प्राप्त है। पहला स्थान स्कंद पुराण को प्राप्त है। पद्म पुराण पांच खण्डों में विभक्त है - सृष्टिखण्ड, भूमिखण्ड, स्वर्गखण्ड, पातालखण्ड तथा उत्तरखण्ड। इस पुराण में ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश की त्रिमूर्ति के एकतव की बात कही गई है। इसकी श्लोकों की संख्या 55000 है।
3. विष्णु पुराण - विष्णु पुराण पराशर ऋषि द्वारा रचित माना जाता है। इसमें विष्णु की स्तुति की गई है। इसके अलावे इसमें आकाश आदि भूतों का परिमाण, समुद्र, सूर्य आदि का परिमाण, पर्वत, देवता आदि की उत्पति, विविध मनुओं की कालावधि, कल्प-विभाग, सम्पूर्ण धर्म एवं देवर्षि तथा राजर्षियों के चरित्र का विशद वर्णन है। इसमें मौर्यवंशी राजाओं का उल्लेख भी मिलता है। बम्बई से प्रकाशित संस्करण में 16000 तथा अन्य पुराणों में 23000 श्लोकों की संख्या बताई गई है।
4. वायु (शिव) पुराण - इस पुराण में शिव की अधिक चर्चा होने के कारण इसे ‘शिव पुराण’ के नाम से भी जाना जाता है। इसमें सात खण्ड है, जिसके दो खण्डों में विष्णु की स्तुति की गई है। इसके अलावे इसमें खगोल, भूगोल, सृष्टिक्रम, युग, तीर्थ, श्राद्ध, राजवंश, ऋषिवंश, वेद शाखाएं, संगीत शास्त्र, शिवभक्ति के साथ-साथ गुप्तवंशी राजाओं का उल्लेख भी मिलता है। कवि बाण भट्ट ने इसका उल्लेख कादम्बरी में किया है। इसके अनुसार इसमें श्लोकों की संख्या 23000 बतलाई गई है।
5. भागवत पुराण - समस्त पुराणों में यह सबसे प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय पुराण है। इसमें भागवान कृष्ण का गुणगान किया गया है। उसे सभी देवों का देव अथवा स्वंय भगवान के रूप में चित्रित किया गया है। इसलिए इसे ‘श्रीमद्भगवत’ अथवा केवल ‘भागवत’ कहा गया है। वेष्णव धर्म के अनुयायी इसे ‘पंचम वेद’ कहते हैं। इस पुराण में गौतमबुद्ध तथा कपिल मुनि को विष्णु का अवतार कहा गया है। इसमें 18000 श्लोक हैं।
6. नारद पुराण - इसे ‘नारदीय पुराण’ भी कहा जाता है। इसमें अठारह पुराणों की अनुक्रमणिका दी गई है। यह पूर्व तथा उत्तर दो खण्डों में विभक्त है। पूर्व खण्ड में 125 तथा उत्तर खण्ड में 28 अध्याय है। इस पुराण में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष और छंद शास्त्रों का विस्तृत वर्णन है। भगवान विष्णु की भक्ति को मोक्ष प्राप्ति का एकमात्र मार्ग बतलाया गया है। इसमें कुल 25000 श्लोक हैं।
7. मार्कण्डेय पुराण - इस पुराण में मार्कण्डेय ऋषि द्वारा महाभारत के पात्रों के संदर्भ में अनेक प्रश्नों का समाधन किये जाने के कारण इसका नाम ‘मार्कण्डेय’ पड़ा। इसमें ऋग्वेद की तरह अग्नि, इन्द्र, सूर्य आदि देवताओं का उल्लेख है। साथ ही इसमें गृहस्थ जीवन, दिनचर्या, नित्यकर्म आदि की भी चर्चा की गई है। यह पुराण ‘दुर्गासप्तशती’, राजा हरिश्चन्द्र, मदालसा-चरित्रा, अत्रि-अनसूया, दत्तात्रेय-चरित्र जैसे अनेक कथाओं से युक्त है। इसमें श्लोकों संख्या 6900 है।
8. अग्नि पुराण - विषय की विविधता एवं जन साधारण के लिए उपयोगी होने के कारण इस पुराण का विशेष महत्व है। इसमें ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश तथा सूर्य की उपासना की गई है। 18 विद्याओं के वर्णन के साथ इसमें महाभारत, रामायण, मत्स्य, कूर्म आदि अवतारों की कथा, सृष्टि-वर्णन, दीक्षा-विधि, वास्तु-पूजा, विभिन्न देवताओं के मंत्र आदि का सुन्दर चित्रण प्रस्तुत किया गया है। अपनी व्यापक दृष्टि तथा विशाल ज्ञान भंडार के कारण अनेक विद्वानों ने इसे ‘भारतीय संस्कृति का विश्वकोष’ कहा है। इसमें श्लोलों की संख्या 15000 है।
9. भविष्य पुराण -इस पुराण में भविष्य के लिए भविष्यवाणी की गई है। भविष्यवाणी के रूप में कलियुग का वर्णन किया गया है। इसमें धर्म, नीति, उपदेश, सदाचार, व्रत, तीर्थ, दान, ज्योतिष एवं आयुर्वेद विषयों का भी संकलन किया गया है। इसके अलावे इसमें नित्यकर्म, संस्कार, सामुद्रिक लक्षण, शांति तथा पौष्टिक कर्म, अराधना और अनेक व्रतों का विशद वर्णन है। इस पुराण में श्लोकों की संख्या 14500 है।
10. ब्रह्माण्ड पुराण - यह पुराण उपाख्यानों और तीर्थ माहात्म्यों तथा स्त्रोतों का संग्रह है। इस पुराण को ‘वायवीय पुराण’ अथवा ‘वायवीय ब्रह्माण्ड’ के नाम से जाना जाता है। इस पुराण में विश्व का पौराणिक भूगोल, विश्व खगोल, अध्यात्म रामायण आदि का उल्लेख है। इसमें कुल 12000 श्लोक हैं।
11. मत्स्य पुराण - इस पुराण में प्रचलित जल प्रलय की कथा का वर्णन है। जिसमें भगवान विष्णु ने जल प्रलय के समय मत्स्य अवतार लेकर मनु की रक्षा की थी। इसमें राज धर्म, तीर्थयात्रा, दान, प्रयाग महिमा, काशी महिमा, नर्मदा महिमा, मूर्ति निर्माण एवं त्रिदेवों की महिमा आदि का चित्रण मिलता है। इसके अलावे इसमें भवन निर्माण, दक्षिण भारतीय वास्तुकला एवं मूर्तिकला का मनोरम चित्रण भी उल्लेख किया गया है। मत्स्य पुराण में कुल 14000 श्लोक हैं।
12. ब्रह्मवैवर्त पुराण - ब्रह्मवैवर्त शब्द का अर्थ है ब्रह्म का विवर्त अर्थात् ब्रह्म की रूपांतर राशि। ब्रह्म की रूपांतर राशि ‘प्रकृति’ है। प्रकृति के विभिन्न परिणामों का प्रतिपादन इस पुराण में प्राप्त होता है। यह वैष्णव पुराण है। इस पुराण में कृष्ण को प्रमुख इष्ट मानकर इसे सृष्टि का कारण बतलाया गया है। इसके अनुसार सम्पूर्ण सृष्टि की रचना ब्रह्मा का माया है। इसलिए इसका नाम ‘वैवर्त’ पड़ा। इसमें सृष्टि में जीव की उत्पत्ति के कारण और ब्रह्मा के द्वारा सम्पूर्ण भू-मंडल, जल मंडल तथा वायु मंडल में विचरण करने वाले जीवों के जन्म और उनके पालन पोषण का सविस्तार वर्णन किया गया है। इसमें चार खण्ड हैं। ब्रह्मखण्ड, प्रकृतिखण्ड, कृष्णजन्मखण्ड तथा गणेशखण्ड। इस पुराण में 18000 श्लोक हैं।
13. वामन पुराण - इसमें भगवान विष्णु के वामन अवतार का वर्णन मिलता है। इसमें 95 अध्याय हैं। जिसमें लिंग पूजा का प्रतिपादन किया गया है तथा शिव-पार्वती के विवाह का वर्णन भी किया गया है। इस पुराण में पुराणों के पांचो लक्षण यथा - सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंशानुचरित का भी वर्णन है। इसके श्लोकों की कुल संख्या 10000 है।
14. वराह पुराण - यह वैष्णव पुराण है। इसमें भगवान विष्णु के वराह अवतार का वर्णन मिलता है। यह पुराण सृष्टि तथा वंशानुक्रम का विस्तृत उल्लेख करता है। इसके अलावे इसमें भगवान नारायण की पूजा-विधि, शिव-पार्वती की कथाऐं, आदित्य तीर्थो की महिमा, मोक्षदायिनी नदियों की उत्पत्ति और महिमा आदि का भी वर्णन किया गया है। एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल के संस्करण के अनुसार इसमें लगभग 15000 श्लोक हैं।
15. लिंग पुराण - लिंग पुराण को समस्त पुराणों में श्रेष्ठ माना जाता है। इसमें भगवान शिव की भक्ति तथा विशेषकर लिंगपूजा का वर्णन मिलता है। इसमें शिव के 28 अवतारों का विवरण मिलता है। इस पुराण में कर्मकाण्ड के प्रतिपादन मुख्य रूप से किया गया है। इसमें श्लोकों की संख्या 11000 है।
16. गरूड़ पुराण - यह पुराण भी वैष्णव पुराण है। इसमें पौराणिक विषयों के साथ विष्णु भक्ति, वैष्णव धार्मिक कृत्य तथा प्रायश्चित आदि का वर्णन मिलता है। सनातन धर्म में इस पुराण को मृत्यु के बाद सद्गति प्रदान करने वाला माना जाता है। इसलिए सनातन धर्म में मृत्यु के बाद गरूड़ पुराण को सुनाने की प्रथा है। इसमें भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, सदाचार, निश्काम कर्म की महिमा के साथ यज्ञ, दान, तप तथा तीर्थ आदि शुभ कार्यों में जनों को प्रवृत करने के लिए लौकिक और परालौकिक फलों का उल्लेख किया गया है। इसमें कुल 18000 श्लोक हैं।
17. कूर्म पुराण - इस पुराण में विष्णु के कूर्म अवतार का वर्णन मिलता है। इसमें भगवान विष्णु ने कूर्म अवतार लेकर राजा इन्द्रद्युम्न को पुराण सुनाई थी। पुनः उसी कथानक को समुद्र मंथन के समय इन्द्र तथा अन्य देवी-देवताओं के साथ-साथ आदि ऋषि मुनियों को सुनाया था। इसप्रकार यह पुराण भगवान कूर्म द्वारा कहे जाने के कारण इसका नाम ‘कूर्म पुराण’ पड़ा। इसमें कुल 12 स्कंध, 335 अध्याय तथा 17000 श्लोकों का वर्णन मिलता है।
18. स्कन्द पुराण - यह भगवान स्कंद के द्वारा कथित होने के कारण इसका नाम ‘स्कंद पुराण’ पड़ा। अठारह पुराणों में यह सबसे वृहद् गं्रथ है। यह मूल रूप से शैव पुराण है। इसमें शिवभक्ति, योग, वर्णाश्रम धर्म, मोक्ष तथा वैदिक कर्मकाण्ड का उल्लेख मिलता है। इस पुराण में विभिन्न तीर्थ स्थानों, नदियों के उद्गम के साथ-साथ व्रत कथाओं एवं पर्वों के बारे में उल्लेख होने के कारण इसका अधिक महत्व है। वेंकटेश्वर प्रेस संस्करण के अनुसार इसमें कुल 81000 श्लोक हैं।
इस प्रकार से भारतीय धर्म तथा संस्कृति के स्वरूप की जानकारी पुराणों से प्राप्त की जा सकती है। धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक तथा भौगोलिक आदि अनेक दृष्टिकोण से पुराण का विशिष्ट महत्व है। पुराणों का उद्देश्य वेदों के जटिल एवं दार्शनिक उपदेशों को ऐतिहासिक तथ्यों और आख्यानों के द्वारा जनसाधारण तक सुगमता से पहुंचाना था। पुराणों के द्वारा प्राचीन इतिहास की जानकारी आसानी से प्राप्त होती है। साहित्यिक दृष्टि से पुराणों का महत्व बड़ जाता है। क्योंकि भारतीय काव्य-ग्रंथों का निर्माण पुराण से कथावस्तु को लेकर हुआ है। व्याकरण तथा छंद विधान पुराणों की देन है। ‘अग्निपुराण’ से काव्य शास्त्र के विषयों की जानकारी उपलब्ध होती है। भौगोलिक दृष्टि से भी पुराणों की उपयोगिता काफी है। पुराणों में पृथ्वी को चतुद्र्वीपा वसुमती तथा सप्तद्वीपा वसुमती कहा गया है। अर्थात् यहां चार द्वीप तथा सात द्वीप हैं, जो समुद्रों से घिरी हुई है। इस प्रकार पुराणों का भूगोल काल्पनिक नहीं होकर ठोस प्रमाण पर आधारित है। इसमें सकारात्मक दृष्टि से शोध करने की आवश्यकता है। फिर भी प्राचीन भारत के विविध ज्ञान और विज्ञान यथा जीवविज्ञान, वनस्पति विज्ञान, आयुर्वेद, ज्योतिष शास्त्र, भाषा विज्ञान, इतिहास, भूगोल आदि सभी का एकत्र विवरण पुराणों में प्राप्त होता है। यहां व्याकरण, छंद रचना, धर्मशास्त्र आदि विषयों के मूल तथ्यों का वर्णन सरलता से प्रस्तुत किया गया है। अतः इसे विश्व ज्ञान का ‘कोष’ कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी। पुराण के इसी विशिष्टता के कारण विदेशी विद्वान भी आकर्षित हुए हैं। इंग्लैण्ड के सुप्रसिद्ध विद्वान एच.जी. वेल्स ने अपनी पुस्तक ‘‘आउटलाइन ऑफ हिस्ट्री ’’ (इतिहास की रूपरेखा) में पौराणिक प्रणाली का अनुकरण किया है। इसमें उन्होंने इतिहास लिखने से पूर्व सृष्टि के प्रारम्भ से मनुष्य के विकास का इतिहास लिखा है। मनुष्य योनी को प्राप्त करने से पूर्व पहला मानव को कौन सा रूप धारण करना पड़ा तथा उसका क्रमिक विकास कैसे हुआ ? इसका बहुत ही सुन्दर वर्णन किया गया है। इस प्रकार यदि मनुष्य का इतिहास लिखना हो, तो सृष्टि के आरम्भ से ही उसके विकास की कथा लिखनी ठीक है। इतिहास लिखने की यही पौराणिक प्रकार का आदर्श है।’’ अतः किसी मानव समाज का इतिहास तभी पूर्ण समझा जायेगा जब उसकी कहानी सृष्टि के आरम्भ से लेकर वर्तमान काल तक क्रमबद्ध रूप प्रस्तुत किया जाये। जब तक किसी देश की कथा सृष्टि से प्रारम्भ से न लिखी जाये तब तक उसे अधुरा समझना चाहिए। इतिहास की इस वास्तविक कल्पना को पुराणों देखा जा सकता है।
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