M.A.Sem-4 (CC-10) तेलंगा खड़िया
वीर शहीद तेलंगा खडि़या
भारतीय इतिहास की पुस्तकों में झारखण्ड का इतिहास और इसके जननायक प्रायः अनुपस्थित हैं। आजादी के बाद भी यह प्रदेश अपनी खनिज सम्पदाओं और सस्ते कामगारों के कारण आन्तरिक उपनिवेशवाद का शिकार रहा । इन विदेशी या देशी औपनिवेशिकता के रखवालों का चरित्र कमोबेश एक जैसा ही रहा है। उनके अनुसार शासित समूह की संस्कृति, भाषा, कला और इतिहास को नष्ट कर देना या जान बूझकर उपेक्षा करना ऐसा लगता है कि उनका धर्म है। इतिहास को अपने अनुकूल करने, उसे सीमित करने, उसके अंदर छिपे हुए रहस्यों को दबाने या नई पीढ़ी को उससे वंचित रखा जाना कहाँ तक उचित होगा, यह विचारणीय है। झारखण्ड के इतिहास से संबंधित अस्मिताबाद को क्षेत्रीय राष्ट्रवाद में परिवर्तित होने के खतरे को समझना अति आवश्यक है।
इस क्षेत्र को इतिहास के पन्नों में देखें तो ऋग्वेद में कीकट, मगध, महा भारत काल में उड्र, पौण्ड्र, पौण्ड्रिक, बाद के समय में अर्कखण्ड या कर्कखण्ड, नागपुर, झारखण्ड, कोकराह या खुखरा, चुटियानागपुर, छोटानागपुर आदि नाम देखे जा सकते हैं। मुगल काल में नागवंशी महाराजा दुर्जनशाल के शासन काल में यहाँ हीरा मिलता था, इस कारण इसे हीरानागपुर भी कहा जाता है। 1628 ई- में नागवंशियों ने मुगलों को रू- 6000 सलाना मालगुजारी देना स्वीकार कर अधीनता मान ली थी। इसके बाद 12 अगस्त 1765 को मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय ने ईष्ट इंडिया कम्पनी को बंगाल, बिहार व उड़ीसा का दीवनी सौंप दी। इस तरह झारखण्ड प्रदेश जो बेहार (बिहार) का एक हिस्सा था अंग्रेजी शासन के तहत कर चुकानेवाला क्षेत्र बन गया। वर्ष 1778 के अंतिम दिनों के आते आते सिपाहियों की पाँच कम्पनियाँ चतरा में स्थापित कर दी गयी जिन्हें आवश्यकतानुसार कैप्टेन कामाक की सहायता के लिए बरवे क्षेत्र के लिए कूच किया गया।
जमींदारी पुलिस की शुरूआत 1806 ई- से हो चला था। अंग्रेजों ने राजाओं और जमींदारों से आग्रह किया कि वे अपने इलाके में ‘पुलिस स्टेशनों’ की स्थापना करे। शुरूआती दिनों में इस कार्य में उन्हें कोई खास सफलता नहीं मिली क्योंकि राजाओं और जमींदारों ने इसका विरोध किया। यह इसलिए भी चूँकि इससे उनका अधिकार कम होता था और खर्च बढ़ने लगा। इतना ही नहीं दूसरी ओर पुलिस के सारे बड़े-बड़े अधिकारी बाहरी आदमी आने लगे और बाहरी दिकू लोग जमींदारों, जागीरदारों के साथ मिलकर किसानों पर अत्याचार करने लगे। 1793 के स्थयी बन्दोबस्ती के लागू करने के बाद से ही आदिवासियों की खेी जिसे हम सामूहिक-स्वामित्व के रूप में जानते हैं, व्यक्तिगत स्वामित्व में बदल गई। फल यह हुआ कि इस भूमि का खरीद-बिक्री किया जाना, रेहन की तरह रखा जाने का रास्ता खोल दिया गया। इस पूरे प्रदेश के लिए इस अभूतपूर्व घटना का लाभ खासकर भूमि पर बाहरी लोगों के द्वारा तेजी से आरम्भ होने लगा।
इन दिनों मौखिक इतिहास का दौर जिसके तहत लोग अपनी जीवन वृतांत आनेवाली पीढ़ी को सौंपते थे, समाप्त हो गया है। इसके बावजूद लोकगीतों व लोककथाओं में यहाँ के निवासियों विशेसकर आदिवासियों की झलक देखने को अवश्य मिलती है। इसमें उनकी जीवन जीने की पद्धति, परंपरा व संस्कृति देखा जा सकता है। इसी छोटानागपुर में स्थिर होकर काफी लम्बे समय तक खडि़या समुदाय सिसई के आसपास बस गए थे तथा उन्होंने अपना भुईंहारी और खुँटकट्टी स्थापित किया। इसी वजस से सिसई और इसके आस-पास इस समुदाय के गोत्रें का भुईंहारी गाँव स्थित हैं। वर्तमान मेें गुमला जिला के सिसई प्रखण्ड मुरगू गाँव में, जो बिलुंग गोत्र का भुईहार जगह है सीरू खडि़या उनकी पत्नी बुच्ची खडि़या का निवास स्थान था। इनके पाँच बेटे थे जिनमें ठुईया खडि़या ज्येष्ठ पुत्र थे। ठुईया की शादी पेतो खडि़या से हुई थी। इन्हें 9 फरवरी 1806 ई- में एक पुत्र रत्न प्राप्त हुआ जिसका बचपन का नाम ‘तेलबंगा’ था। कहा जाता है कि वह अधिक बोलनेवाला और साहसी व्यक्ति था। यह भी कहा जाता है कि तेलबंगा बचपन से ही मेधावी तथा उसकी चिंतन शक्ति अत्यंत प्रखर थी। अपनी बात को सही ठहराने में वह अच्छी तरह बहस कर लेता था। स्कूली शिक्षा न रहने पर भी उनका व्यवहारिक ज्ञान बहुत अच्छा था। आगे चलकर युवक का नाम ‘तेलंगा’ हो गया। समय आने पर इनक विवाह रतनी खडि़या से 1846 ई- में हो गया। 5‘8‘‘ का तेलंगा को तीर चलाने, तलवार व गदा भांजने, बल्लम व कुल्हाड़ी से वार करने और ढेलवांस चलाने में महारत हासिल था।
पिता ठुईया खडि़या रातू महाराजा के भण्डारपाल थे। इस कारण राज दरबार में हमेशा आना-जाना लगा रहता था। बचपन में तेलंगा भी अपने पिता के साथ राज दरबार आते-जातमे रहते थे। वहाँ आने-जाने के क्रम में राजा व जमींदारों द्वारा आदिवासियों पर होनेवोल अत्याचार को देखते सुनते थे। इससे उन्हें दुःख होता था और वे तरस खा कर रह जाते थे।
रांची जिला, साउथ वेस्ट फ्रोंटियर एजेन्सी में मिला दिया गया। इसका मुख्यालय किशुनपुर गांव रखा गया। सन् 1842 में लोहरदगा जिला को किशुनपुर स्थांतरित कर दिया गया। गजट में प्रकाशित जानकारी के अनुसार यह किशुनपुर गांव, रांची जेल पुराना वाला क्षेत्र ही है। सन् 1854 में एजेन्सी का मुख्य जो कि गवर्नर जनरल कहलाता था उसे कमिश्नर, छोटानागपुर के अंदर दे दिया गया। इस बात की पुष्टि मिस्टर रिकेट की रिपार्ट 1854 के अधिनियम 20 के द्वारा हमें मिलती है। इस दौरान लोहरदगा में टेलेग्राफ ऑफिस खुल चुका था। इसके अलावे 10 सब पोस्ट ऑफिस और 23 ब्रांच पोस्ट ऑफिस जिला में कार्यरत थे। इनमें लोहरदगा, गुमला, बसिया, खूंटी, कोलेबिरा, पालकोट व सिसई आदि नाम प्रमुख थे। बाजारों में रांची, गुमला, बुण्डू, लोहरदगा और पालकोट प्रमुख बाजार थे। इसके अतिरिक्त अन्य जगहों में भी छोटे-छोटे हाट बाजार लगते थे। यातायात के लिहाज से लोहरदगा और रांची म्यून्सिपैलिटि के अतिरिक्त 1029 माइल सड़क का निमा्रण हो गया था। रांची-पुरूलिया, रांची-लोहरदगा और रांची- चाईबासा रोड चालू हो गया था जिसे बाद में पीडब्ल्यूडी विभाग के जिम्मे दे दिया गया। इस कारण 1820 का प्रथम कोल विद्रोह व 1831-32 का मुंडा-हो विद्रोह तथा अन्य घटनाओं और उलगुलान की जानकारी व चर्चांए बाजार हाटों में सुनाइ्र पड़ती रहती थी।
सन् 1856 के ‘कलकत्ता रिव्यू’ के अनुसार यह समाचार मिलता है- ‘‘यदि उन्हें सरकार के लिए छः रूपया वसूलना होता तो वे और छः रूपया अपने लिए वसूलते थे और जहां जमीन बंदोबस्ती का लगान 4 आना (25पैसे) तय था वहां वे एक रूपया अधिक लेते थे। इसी कलकत्ता रिव्यू 1856 के पृष्ठ सं- 240 पर महाजनी उत्पीड़न का विस्तृत विवरण है। कुछेक अंग्रेज अधिकारियों की रिपोर्टों में भी इस क्षेत्र में व्याप्त शोषण, अन्याय का जिक्र आया है। इन प्रतिवेदनों में से निम्न प्रमुख हैं -
1- डेविडसन की रिपोर्ट (1839)
2- मेजर हार्निगटन की रिपोर्ट (1853)
3- मिस्टर रिकेट की रिपोर्ट (1854)।
भूमि का स्वामित्व सामूहिक से व्यक्तिगत होने का आक्रोश लोगों में था ही, दूसरी ओर जमीन का लगान जमींदारों व जागीरदारों, ठेकेदारों द्वारा बढ़ा दिए जाने से आग में घी का काम किया। अपने लोगों का बिना मजदूरी के काम कराना, बैठ बेगारी कराने से इनका गुस्सा और बढ़ने लगा। यहां तक कि महाजन जो उन्हें पैसा व अनाज ऋण में देते थे, वे भी साल भर की उपज का 70 प्रतिशत तक और कभी तो उससे भी ज्यादा कर वसुलने लगे। हंडि़या और देशाी शराब पर भी कर बांध दिया गया जो हर परिवार से सलामी या अन्य नाम से दोहन किया जाता था। नहीं दे पाने पर खस्सी या बकरी भी लेने में गुरेज नहीं था। इस दर्द को हम खडि़या लोक गीत से जान सकते हैं जो इस तरह है-
‘‘हाय दइया आपा या’ साका
दूराते सिपाही डोकोसि’
दूराते पाइजकोम डोकोसि’।
आले से रे पाइजकोम
बही पटा योना तेरे
हो’ दुरा ते पाइजकोम डोकोसि’।’’
इन सबका तेलंगा विरोध करने लगे और लोगों को इकट्ठा करने लगे। उन्होंने जगह-जगह संगठन बनाकर लोगों का जागरूकत करने का काम किया और अपने संगठन को ‘जूरी पंचायत’ के नाम पर संगठित किया। उसके संगठन में अन्य समुदाय तथा सदान लोग भी आदिवासियों का साथ दिया। इन्होंने मालजुजारी देना बंद किया। उनके ऐसा करने से अंगेज बहादुर भड़क गए और इन्हें कुचलने का तरकीब सोचने लगे। क्षेत्र के लोगों में उलगुलान बढ़ता गया और संगठन जुड़ने वाले लोगों की संख्या बढ़कर 1500 तक पहुंच गया। तेलंगा अपनी फौज को प्रशिक्षण देते और गुरिल्ला युद्ध करते हुए अंग्रेज सरकार व उसके हिमायती जमींदारो पर आक्रमण करने लगे। यह आंदोलन धीरे-धीरे इस इलाके में बढ़ते बढ़ते मुर्गू, जूरा, डोइसा, सोसो, नीमटोली, ढेढ़ोली, नाथपुर, बेन्दोरा, कोलेबीरा, महाबुआंग तथा कुम्हारी आदि गांवों में शाखाएं काम करने लगी। वे सुबज में अखाड़े में जमा होते, धरती माता को प्रमाण करते तथा प्रशिक्षण का काम होता। इनके बढ़ते प्रभाव को देखते हुए राजा जमींदार व अंग्रेज सरकार चिंता में पड़ गई और तेलंगा को पकड़ने की योजना बनने लगी। माजगुजारी न देने पर जमींदार और सरकार के द्वारा इनकी जमीन छीन ली गई। पुलिस और जमींदार व उसके कारिदों के द्वारा कड़ाई करने व पकड़ने की योजना को जानकर तेलंगा और उसके साथी छिपकर अपना आंदोलन चलाने लगे। मुरगू में लड़ाई के विषय नागपुरी में एक गाना है जिसका भावार्थ यह है - ‘मुरगू के मैदान में सोने की तरह तलवार चमक रहा है, रूपे की तरह तलवार चमक रहा है, कब लड़ोगे तेलंगा।’
तेलंगा के उलगुलान को सरकार ने डकैती और लूटपाट की संज्ञा दी। तेलंगा लोगों के लिए लड़ता भी था और जूरी पंचायत के माध्यम से उन्हें मदद भी करता था। लड़ते हुए उन्होंने कई बार यथा कोलडेग व कुम्हारी आदि स्थानों में अंग्रेजी फौज को पछाड़ाा। इससे उसकी ख्याति गुमला, लोहरदगा तथा आस-पास के इलाकों में और बढ़ने लगी। इनका आंदोलन 1850-60 के बीच उग्र रूप में था। जमींदार व महाजन आतंकित रहने लगे, डोम्बा की लड़ाई के बाद सिपाहियों का रोष भयंकर रूप ले लिया। कुम्हारी में जुरी पंचायत का गठन करते समय धोखे में तेलंगा पकड़ लिए गए। पकड़े जाने पर उन्हें लोहरदगा लाया गया, जहां इनपर मुकदमा चला। लोहरदगा और बड़कागढ़ में मुंसिफ कोर्ट की स्थापना हो गई थी जिसे बाद में डॉ डेविडसन लोहरदगा जिला मुख्यालय को किशुनपुर स्थानांतरित कर दिया गया। उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। इसके बाद तेलंगा को कलकत्ता जेल भेजा गया। इस संदर्भ में एक लोगगीत प्रचलित है -
लोहरदगा जोरी बेरी ओ’ब्सुतेमाय,
साहेब हुकुम तेरो’
जोरी बेरी ओ’ब्सुतेमाय।’’
अर्थात् लोहरदगा का जोड़ा भर बेड़ी पहनाते हैं, साहब ने हुकुम दिया, जोड़ा भर बेड़ी पहनाते हैं। इसकी पुष्टि डॉ दिवाकर मिंज की पुस्तक ‘झारखण्ड के शहीद’ पृष्ठ सं- 137 से होती है। जिसमें त्मणि् ज्मसमदहं ज्ञींतपंए थ्पसम छवण् 133 क्जण् डंतबी 3ए 1855 स्वीमतकंहं बवससमबजवतंजम कपेचंजबी टवसण् 1855 अंकित है।
सूत्रें के अनुसार कलकत्ता जेल में तेलंगा 14 वर्षों की एक लम्बी सजा काटने के पश्चात् गांव वापस लौटे। कहा जाता है कि जेल में अच्छा आचरण करने पर उनकी सजा कम कर दी गई। उस क्षेत्र के लोया खडि़या यह स्पष्ट नहीं कर सके कि तेलंगा को 14 या 18 वर्षों की सजा मिली थी। पर इस विषय पर अधिकांश लोग जेल की अवधि को 18 साल मानते हैं। एक लम्बी अवधि तक कारावास में रहकर 1873 में लौटने पर लोग यह सोच रहे थे कि अब तेलंगा बदल गए होंगे। उनका उलगुलान का जुनून खत्म हो गया होगा। जो भी हो जमींदारों और साहूकारों को उनका गांव लौटना अच्छा नहीं लगा। वे सशंकित रहने लग। कुछ दिन बीज जाने के बाद गांव की मिट्टी, पानी, हवा उनके शरीर व मन में लगने के बाद तेलंगा के अंदर की आग पुनः प्रज्वलित हो उठी। इस बीच 1857 की जन क्रांति व स्वतंत्रता का आंदोलन भी जोर पकड़ चुका था। विचार विमर्श हुआ, पुनः जूरी पंचायत को संगठित करने व अखड़ा पर जमा होने का आह्वान किया। पुराने गांवो पर आना जाना और जूरी पंचायतें सजीव हो उठी। हरिओम गुप्ता ने पुरूलिया के खडि़या लोगों का अध्ययन किया जिसके अनुसार इन्होंने अंग्रेजों के खजाने लूटे। परंतु अंग्रेज सरकार के 1871 में ‘क्रिमिनल ट्राइब एक्ट’ लागू करने से लोग भी सहमे हुए थे। खडि़या जाति को अपराधिक जाति घोषित करने में कमिश्नर कूपलैंड का पूरा हाथ रहा। अंग्रेज सरकार उलगुलान को दबाने के लिए कठोर कदम उठाने में जुट गयी। जमींदार व जागीरदार तेलंगा की गतिविधि की सूचना बराबर सरकार को देने लगे। इसके बावजूद पूरे बिहार, उड़ीसा तथा छोटानागपुर में स्वतंत्रता की लड़ाई जोर पकड़ लिया। इसी बीच तेलंगा के बारे में भनक लगने पर 23 अप्रैल 1880 को अपने सिसई अखाड़े में प्राथर्न करते समय एक बड़े चट्टान व झाडि़यों की ओट में छिपे अंग्रेजों के प्रण पखेरू उड़ गए । उनके अनुयायी मृत शरीर को उठा कर जंगल की ओर भाग गए। उन्होंने कोयल नदी पार कर सोसो नीमटोली, गुमला के एक टांड़ में शव को गाड़ दिया। इसकी पुष्टि सन् 2000 में ब्र- फेलिक्स टेटे येसु समाजी ने उनकी आधी कब्र खोदकर दो तलवारें आड़ी तिरछी जंग लगे हालत में देखी थी। आज भी यह टांड़ ‘तेलंगा तोपा टांड़’ के नाम से जाना जाता है। हत्यारा बोधन सिंह जो करगांव, सिसई का निवासी था, वंशहीन हो मर गया। शहीद तेलंगा के वंशज भी डर से तितर-बितर हो गए, कुछ उड़ीसा तो कुछ असम की ओर चले गए। उनका एकमात्र पुत्र जोगिया खडि़या भी अपने परिवार के साथ बिरकेरा, घाघरा चले गए जो अभी भी पहनाई का काम करते हैं।
साभार:-
बासिल किड़ो
उपायुक्त वा-कर (से-नि-) रांची।
सह कोषाध्यक्ष, तेलंगा खडि़या स्मारक समिति, रांची।