BA PART 2 DELHI SULTANAT BALBAN
बलबन का राजत्व संबंधी सिद्धांत (Balban's Theory of Kingship) बलबन दिल्ली का प्रथम सुलतान था, जिसने राजत्व संबंधी सिद्धांतों की स्थापना की। वह
भारत के प्राचीन शासकों की ही तरह राजत्व के देवी सिद्धांत में विश्वास रखता था। इसके द्वारा वह सुलतान की सर्वोच्चता स्थापित करना चाहता था। उसके राजत्व सिद्धांत का स्वरूप फारस के राजत्व संबंधी सिद्धांतों से प्रभावित था। बलबन सुलतान को पृथ्वी पर अल्लाह का प्रतिनिधि नियाबते-खुदाई मानता था। उसके अनुसार, सुलतान का स्थान पैगंबर के पश्चात आता है। सुलतान जिल्ले अल्लाह, अर्थात ईश्वर का प्रतिबिंब है। वह अल्लाह के निर्देशानुसार ही शासन करता है। बलबन यह भी मानता था कि “राजा का हृदय ईश्वर कृपा का विशेष कोष है और समस्त मनुष्य जाति में उसके समान कोई नहीं है। राजत्व निरंकुशता का शारीरिक रूप है। इस प्रकार की निरंकुशता सुलतान की हत्या का खतरा उत्पन्न करती थी। अतः, अपनी सुरक्षा के प्रति सावधान रहना चाहिए और जनता में अपने प्रति भय की भावना जागरित करनी चाहिए।" उसने अपने पुत्रों को भी इस बात की शिक्षा दी कि वे राजत्व के उच्च आदर्शों के अनुसार ही शासन करें, अपने व्यक्तिगत चरित्र को आदर्शमय बनाएँ, जिसका अनुकरण अन्य व्यक्ति कर सकें। राजा के उत्तरदायित्वों और कर्तव्यों की भी उसने एक रूपरेखा तैयार की। उसका एकमात्र उद्देश्य सुलतान के पद की गरिमा एवं उसकी शक्ति को सुरक्षित बनाए रखना था। बलबन ने राजत्व का दैवी सिद्धांत क्यों अपनाया, इस संबंध में विभिन्न मत दिए गए हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि जिस समय बलबन गद्दी पर बैठा, उस समय सुलतान की प्रतिष्ठा नष्ट हो चुकी थी। इल्तुतमिश के अनेक उत्तराधिकारी सुलतान तुर्की अमीरों के षड्यंत्र का शिकार होकर अपने प्राण गँवा चुके थे। ऐसी परिस्थिति में सैनिक और असैनिक शक्तियों से युक्त एक शक्तिशाली शासक की आवश्यकता थी, जो विभिन्न अभिजात वर्गों को संगठित रख सके और कानून-व्यवस्था पर नियंत्रण स्थापित कर सके। यह कार्य वही सुलतान कर सकता था जिसका सबों पर भय हो और सभी उसका सम्मान करे। राजत्व की नई व्याख्या से इन आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती हबीब और निजामी की मान्यता है कि बलबन ने सुलतान को उच्च पद पर प्रतिष्ठित करने का जो प्रयास किया वह उसकी मात्र हीन भावना एवं अपराध बोध का परिचायक है। उनके शब्दों में, "इन निरंतर उपदेशों के पीछे उसकी हीन भावना एवं अपराध भाव की जटिल प्रक्रिया का आभास किया जा सकता है। अपने मालिकों और अमीरों के जिनमें अधिकांश उसके सहचर थे, कानों में निरंतर चिल्ला-चिल्लाकर यह कहने से कि राजत्व एक दैवी संस्था है, उसका यह उद्देश्य था कि राज्यहंता का जो कलंक उसके माथे पर लगा था, उसे धो डाले और उनके मन में यह विचार भली-भाँति बिठा दे दैवेच्छा से ही सिंहासनारूढ़ हुआ है न कि किसी हत्यारे के विष भरे प्याले या कटार से।" डॉ० हबीबुल्ला का मत इससे भिन्न हैं। उनका मानना है कि बलबन ने गद्दी अपने वैध अधिकार के अभाव की कमी को पूरा करने के लिए राजत्व का दर्शन दिया। इसके साथ-साथ यह भी संभव है कि बलबन चूँकि दासता से मुक्त नहीं किया गया था इसलिए वह कानूनी तौर पर सुलतान के पद के अयोग्य था। अतः जनता, अमीर और कानून की
नजरों में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए उसने दैवी राजतंत्र का अर्डवर किया। कारण जो भी हो, इतना तो निश्चित है कि बलबन ने अपने राजत्व के सिद्धांत के आधार पर सुलतान के पद की गरिमा को एक नए धरातल पर स्थापित कर दिया। बलबन के राजत्व सिद्धांत की पूरी जानकारी इतिहासकार बरनी द्वारा संकलित उसके स
से मिलती है। इसमें राजत्व के संबंध में बलबन के विचारों को स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता
है। वसय में बलबन अपने पुत्रों को निम्नलिखित निर्देश देता है
1. "व्यक्तियों के ऊपर शासन करने को एक मामूली और महत्त्वहीन कार्य न समझो, यह एक महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है जिसे पूर्ण गंभीरता व उत्तरदायित्व की भावना के साथ पूरा किया जाना चाहिए। 2. "राजा का हृदय ईश्वर की कीर्ति को प्रतिबिंबित करता है। वह यदि निरंतर ईश्वरीय ज्योति
प्राप्त नहीं करता है तो शासक कभी अपने अनेक और अति महत्त्वपूर्ण कर्तव्यों को पूर्ण
नहीं कर सकता। अतः राजा को अपने हृदय तथा आत्मा की पवित्रता के लिए प्रयत्न
करना चाहिए और ईश्वर की दया के लिए अनुग्रही रहना चाहिए।
3. "एक अनुग्रही राजा सदा ईश्वर के संरक्षण के छत्र से रक्षित रहता है। 4. "राजा को इस प्रकार जीवन व्यतीत करना चाहिए कि मुसलमान उसके प्रत्येक कार्य, शब्द व क्रियाकलाप को मान्य और प्रशंसित करें।
5. "उसे इस प्रकार जीवन व्यतीत करना चाहिए कि उसके शब्दों, कार्यों, आदेशों, व्यक्तिगत योग्यताओं व गुणों से लोग शरीअत के नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत करने के योग्य हो सकें।"
अपने इन तर्कों द्वारा बलबन ने सुलतान को ईश्वर एवं निरंकुश सत्ता का प्रतीक बना दिया। दिखावटी मान-मर्यादा और प्रतिष्ठा राजत्व का आवश्यक अंग माना गया। कुलीन और अकुलीन व्यक्तियों के विभेद पर बल दिया गया। सामान्य जन से सुलतान का संपर्क समाप्त कर दिया गया। प्रशासन सिर्फ कुलीन वर्ग वालों के लिए ही सुरक्षित कर दिया गया। अकुलीन व्यक्तियों से वह कोई संबंध नहीं रखता था। उसका कहना था, "जब मैं किसी तुच्छ परिवार के व्यक्ति को देखता हूँ तो मेरे शरीर की प्रत्येक नाड़ी क्रोध से उत्तेजित हो जाती है।" वंशावली के महत्त्व पर बल दिया गया। फारसी दरबार के तौर-तरीकों को अपनाया गया। बलबन ने न्याय को राजत्व में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया। बलबन ने खलीफा की राजनीतिक सत्ता भी स्वीकार की तथा सिक्कों पर खलीफा का नाम खुदवाया एवं खुतबा में उसका नाम पढ़वाया। अपने राजतंत्र के आदर्शों के अनुरूप ही बलवन ने अपने-आपको ढाल लिया।
बलबन ने राजत्व संबंधी सिद्धांत का स्वयं कठोरतापूर्वक पालन किया। अपनी महत्ता जताने के लिए उसने अपना संबंध तूरानी शासक अफरासियाब से जोड़ा। उसने अपने पौत्रों का नामकरण भी मध्य एशिया के प्राचीन ख्यातिप्राप्त शासकों के नाम के आधार पर किया; जैसे— कैखुसरो, कैकुबाद इत्यादि। उसने अपने पदाधिकारियों की बहाली में भी उच्च वंशवालों को ही तरजीह दी। सारे पद वह उच्च कुल के तुर्कों के लिए ही सुरक्षित रखता था। निम्न वंशवालों की छाया से भी वह बचता था। दिखावटी मान-मर्यादा और प्रतिष्ठा पर वह बहुत अधिक बल देता था। साधारण व्यक्तियों से वह नहीं मिलता था। वह एकांत में रहना पसंद करता था। हर्ष या शोक से वह उद्वेलित या विचलित नहीं होता था। अपने निजी सेवकों के सामने भी वह अपनी भावनाएँ प्रकट नहीं करता था। अपने पुत्र की मृत्यु पर भी उसने किसी के सामने अपना दुःख प्रकट नहीं किया, जबकि एकांत में वह फूट-फूट कर रोता था। उसने शराब पीना एवं आमोदपूर्ण कार्यों में भाग लेना बंद कर दिया। वह कुरान के नियमों का कड़ाई से पालन करता था। न्याय के संपादन पर वह विशेष बल देता था। राजदरबार के लिए निश्चित नियम तय किए गए। फारसी परिपाटी के आधार पर उसने भी दरबार में सिजदा (घुटने पर सिर झुकाना) एवं पैबोस (सुलतान का पैर चूमना) की प्रथा आरंभ की। दरबार में उसके अंगरक्षक नंगी तलवारें लिए खड़े रहते थे। उसके सामने बैठने (खलीफा के दो वंशजों को छोड़कर), बात करने (वजीर के अतिरिक्त), मुस्कुराने की आज्ञा किसी को नहीं थी।
दरबारियों को विशेष प्रकार का वस्त्र पहनकर ही दरबार में उपस्थित होना पड़ता था। अपने इन कार्यों द्वारा बलबन ने सुलतान की विलुप्त प्रतिष्ठा एवं गरिमा को पुनः प्रभावशाली बना तथा सबंपर भय और आतंक स्थापित कर दिया। बलबन को यह एक महत्वपूर्ण थी। अपने सिद्धांतों द्वारा बलबन ने राजत्व के आधार को मजबूत किया। उसने ईश्वर शासक तथा जनता के बीच त्रिपक्षीय संबंध को राज्य का आधार बनाने का प्रयत्न किया।" उसने जनहित को शासन का व्यवहारिक आदर्श बनाया। उसका राजत्व का सिद्धांत शक्ति प्रतिष्ठा और न्याय पर आधारित था। 27
सैनिक व्यवस्था -बलबन का निरंकुश राजत्व बिना सैनिक सहायता के स्थापित नहीं हो सकता था, इसलिए उसने सेना के पुनर्गठन पर ध्यान दिया। उसने अपने सैनिकों की संख्या बढ़ाई। सेना में योग्य सैनिकों एवं अधिकारियों को नियुक्त किया गया। उनके प्रशिक्षण एवं वेतन की व्यवस्था की गई। सैनिकों के वेतन में वृद्धि कर उन्हें संतुष्ट रखने का प्रयास किया गया। प्रचलित सैनिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। वैसे व्यक्ति जो सैनिक सेवा के योग्य नहीं थे, उनकी जागीर वापस लेकर उन्हें पेंशन दे दी गई। सक्षम सैनिकों को जागर तो बख्श दी गई, परंतु लगान वसूली की व्यवस्था सरकार ने अपने हाथों में ले ली। जागीरदारों और सैनिकों द्वारा किराए के आदमियों को युद्ध में भेजने की परिपाटी बंद करवा दी गई सैनिकों में अनुशासन स्थापित किया गया। उन्हें कड़ी हिदायत थी कि युद्ध के लिए कूच करते समय जनता को हानि नहीं पहुंचाएँ। निरंतर सैनिक अभ्यास करवाए जाते थे जिससे सेना हमेशा सतर्क बनी रहे। सैनिक अभियान हमेशा गुप्त रखे जाते थे। संभवतः, सेना के घोड़ों को दागने की प्रथा भी इसी समय आरंभ हुई।
प्रशासनिक सुधार- बलबन प्रशासन के प्रत्येक विभाग पर स्वयं कड़ी निगरानी रखता था। समस्त नौकरशाही पर उसका नियंत्रण था। अधिकारियों की नियुक्ति वह स्वयं करता था। सूबेदारों पर कड़ी निगरानी रखी जाती थी। उन्हें सदैव सूबे की स्थिति से सुलतान को अवगत कराना पड़ता था। उसने सैनिक एवं आर्थिक अधिकार अलग कर दिए। वजीर से सैनिक एवं आर्थिक अधिकार वापस ले लिए गए। इसका उद्देश्य सरकारी अधिकारियों के हाथों में अधिक शक्ति केंद्रित नहीं होने देना था। अधिकारियों को प्रजा के साथ उचित व्यवहार करने का निर्देश दिया गया। गुप्तचर विभाग का संगठन–पदाधिकारियों, राज्य की जनता एवं विरोधियों पर निगरानी
रखने के लिए बलबन ने एक सशक्त गुप्तचर विभाग का संगठन किया। ये बरीद (गुप्तचर)
संपूर्ण साम्राज्य में फैले हुए थे तथा राज्य की प्रत्येक महत्त्वपूर्ण घटना की खबर सुलतान तक
पहुँचाते थे। इन्हें अनेक सुविधाएँ दी गई थीं, परंतु अपने उत्तरदायित्वों का ठीक से पालन नहीं
करने पर उन्हें कठोर दंड दिया जाता था। यदि कोई वरीद किसी स्थानीय अधिकारी की निरंकुशता का समाचार समय पर नहीं देता था तो उसे दंड का भागी होना पड़ता था। बदायूँ के वरीद का वध कर उसकी लाश को सूली पर प्रदर्शित किया गया, क्योंकि उसने अपने कर्तव्य का पालन नहीं किया था। गुप्तचरों की सहायता से ही बलबन समस्त राज्य पर अपनी पकड़ स्थापित कर सका।