BA PART 2 DELHI SULTANAT ADMINISTRATION
केंद्रीय प्रशासन (The Central Administration)
दिल्ली के सुलतानों ने एक सुदृढ़ प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना की। इसका विकास विभिन्न चरणों में पूरा हुआ। इसपर राजपूत-प्रशासन का प्रभाव भी देखा जाता है। सल्तनतकालीन प्रशासनिक व्यवस्था ने मुगलकालीन प्रशासन को भी प्रभावित किया।
सुलतान की स्थिति – सल्तनतकालीन प्रशासन की सारी शक्ति सुलतान के हाथों में केंद्रित थी। वह राज्य का सांविधानिक एवं व्यावहारिक प्रधान था। वह सर्वशक्तिमान और निरंकुश शासक था। उसे वैधानिक, राजनीतिक, प्रशासनिक, सैनिक एवं धार्मिक अधिकार प्राप्त है। दिल्ली के सुलतानों ने वंशानुगत राजतंत्रीय व्यवस्था स्थापित करने की कोशिश की एवं सुलतान में दैवी गुणों का समावेश माना। सिद्धांततः, खलीफा की अधिसत्ता स्वीकार करते हुए भी व्यवहार में वे पूर्णतः स्वतंत्र थे। तुर्क-सुलतानों ने अपनी प्रजा एवं अमीरों पर अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने का प्रयास किया। ईरानी तौर-तरीकों को अपनाकर सुलतान के पद का गौरव एवं सम्मान बढ़ाया, परंतु अफगानों के समय में सुलतान को उसके अमीरों ने बराबरी का दर्जा दिया। सुलतान की निरंकुशता पर जनमत, उलेमा एवं अमीर कुछ सीमा तक नियंत्रण रखते थे। निर्बल शासकों के समय में उलेमा एवं अमीर सुलतान पर हावी हो जाते थे, परंतु सशक्त सुलतानों ने उन्हें सदैव अपने नियंत्रण में रखा। सुलतान का प्रमुख कर्तव्य राज्य और प्रजा की सुरक्षा करना, प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना करना, राज्य में शांति व्यवस्था बनाए रखना, धर्मानुकूल आचरण करना एवं इंसाफ करना था। अनेक सुलतानों ने जनहित के लिए भी कार्य किए एवं कला-कौशल, ज्ञान-विज्ञान तथा साहित्य को संरक्षण एवं प्रश्रय दिया। वस्तुतः, केंद्रीय प्रशासन में सुलतान एक धुरी के समान था, जिसके इर्द-गिर्द समस्त प्रशासनिक व्यवस्था घूमती रहती थी।
सुलतान के सहायक - प्रशासनिक कार्यों में सुलतान की सहायता के लिए एक मंत्रिपरिषद जैसी संस्था थी, जिसे मजलिस-ए-खलवत कहा जाता था। इसके सदस्यों की संख्या निश्चित नहीं थी, बल्कि यह सुलतान की मर्जी पर निर्भर करता था। सामान्यतया इस परिषद में बजीर, सेना विभाग का प्रधान, राजकीय आदेशों का पालन करनेवाला तथा विदेशी राज्यों से संपर्क रखनेवाला पदाधिकारी था। ये सभी मंत्री सुलतान द्वारा बहाल किए जाते थे और उनके इच्छानुसार ही अपने पद पर बने रहते थे। वे सुलतान को परामर्श देते थे, परंतु उनकी सलाह मानना या नहीं मानना सुलतान की मर्जी पर निर्भर था। शक्तिशाली सुलतान मंत्रिपरिषद पर अंकुश रखते थे, लेकिन दुर्बल सुलतानों के समय में सुलतान ही उनके हाथों की कठपुतली बन जाता था।
सुलतान के प्रमुख अधिकारी एवं विभाग : नायव सुलतान के पश्चात राज्य एवं प्रशासन का सबसे प्रमुख व्यक्ति नायव (नायब-ए-मामलिकात) या उप-सुलतान होता था। इसका पद अत्यंत महत्त्वपूर्ण था। नायब सुलतान की अनुपस्थिति में (राजधानी से बाहर जाने की स्थिति में) दिल्ली से सुलतान की ही तरह शासन करता था। उसके पद का महत्त्व सुलतान-विशेष की स्थिति पर निर्भर करता था। सुयोग्य और शक्तिशाली सुलतानों के समय में उसका प्रभाव नगण्य रहता था, परंतु दुर्बल शासकों के समय में वह अत्यंत प्रभावशाली बन जाता था। इस पद पर राजवंश के किसी व्यक्ति, प्रमुख सैनिक अधिकारी या अमीर की ही बहाली होती थी।
बजारत (बजीर) – वजीर सुलतान का प्रमुख सहयोगी था। वह वस्तुतः प्रजा और सुलतान के मध्य कड़ी का काम करता था। सुलतान के पश्चात प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी उसे ही माना जाता था। सल्तनत काल में वजीर की स्थिति में अनेक परिवर्तन हुए।
उन्हें राजस्थ-व्यवस्था के अतिरिक्त सैनिक अभियानों में भी भाग लेने का अवसर दिया। ने सारी शक्ति अपने ही हाथों में केंद्रित कर वजीर के पद को गौण बना दिया। लातीन के समय में उसके वजीरों ने महत्वपूर्ण भूमिका निवाही गयासुद्दीन तुगलक भी अपने पर विश्वास करता था। उसने राज्य के भूतपूर्व बजीरों से भी मैत्री निवासी एवं उनके सुझावों को अहमियत दी। इससे तुगलक काल में वजीर की के लिए नामक पदाधिकारी बहाल किया गया। लोदियों के शासनकाल में बजीर के पद का मही समाप्त हो गया।
वास्तविकता यह है कि वजीर का पद एवं उसकी शक्ति सुलतान की व्यक्तिगत योग्यता पर निर्भर करती थी। यद्यपि वजीर का मुख्य कार्य राजस्व व्यवस्था की देखभाल करना था, त वह सैनिक अभियानों में भी कभी-कभी भाग लेता था, सुल्तान और नायव की अनुपस्थिति में स्वयं शासन करता था तथा समूची व्यवस्था पर नियंत्रण रखता था। उसका कार्यालय दीवाने-ए-वजारत के नाम से जाना जाता था। वजीर अनेक अधीनस्थ पदाधिकारियों की सहायता से अपना उत्तरदायित्व पूरा करता था। इन अधिकारियों में प्रमुख वजीर मुशरिफ-ए-मुमलिक (प्रमुख लेखाकार), मुस्तीफी-ए-मुमलिक (महालेखा परीक्षक), मजनुआ दार (आय-व्यय का व्यवस्थापक) एवं खजीन (खजांची) थे। बजारत से ही संबद्ध विभाग थे दिवाने वकूफ (व्यय कागजातों को तैयार करनेवाला विभाग), दीवाने मुस्तखराज (वसूले गए अतिरिक्त करों की देखभाल करनेवाला विभाग), एवं दीवान-ए-अमीरकोही (भू-राजस्व व्यवस्था और कृषि के विकास को उत्तम बनानेवाला विभाग)
इस प्रकार वजीर विभिन्न प्रकार के कार्य करता था। यह सिर्फ राजस्व व्यवस्था से ही संबंधित नहीं था बल्कि सैनिक एवं प्रशासकि जिम्मेदारी भी निभाता था। सामान्यतः उसे न्यायिक शक्ति प्राप्त नहीं थी तथापि प्रशासन के प्रधान की हैसियत से वह न्याय विभाग की भी देखभाल करता था। उसे नकद वेतन के अतिरिक्त भूमि अनुदान भी दिया जाता था।
आरिज-ए-मुमालिक- इसकी स्थिति सेना मंत्री जैसी होती थी। वह दीवाने-ए-आरज विभाग का प्रधान होता था। सैनिकों एवं सेनापतियों की बहाली, युद्ध एवं सेना से संबद्ध हाथियों, घोड़ों और सैनिकों के अस्त्र-शस्त्रों की समुचित व्यवस्था करने की जिम्मेदारी इसी को थी। वह सैनिक अभियानों का आयोजन करता था एवं सेना का निरीक्षण भी। सेनापतियों पर भी वह नियंत्रण रखता था अलग सैन्य विभाग की स्थापना करने का श्रेय बलबन को दिया जाता है। अलाउद्दीन खिलजी ने भी इस विभाग पर पर्याप्त ध्यान दिया था।
दीवाने-ए-ईशा- यह आलेख-विभाग था। इसका प्रधान दवीर-ए-खास या अमीर मुंशी कहलाता था। शाही घोषणाओं और फरमानों का मसविदा तैयार करना एवं उन्हें संबद्ध अधिकारियों के पास भेजना इसी का कार्य था। दवीर-ए-खास की सहायता के लिए अनेक दबीर (लेखक) हुआ करते थे।
दीवान-ए-रसालत इस विभाग के निश्चित कार्यों के विषय में स्पष्ट जानकारी नहीं है। डॉ कुरैशी के अनुसार, यह विभाग धार्मिक मामलों से संबद्ध था, परंतु डॉ० हबीबुल्ला का विचार है कि यह विदेश विभाग के समान काम करता था। अधिकांश विद्वानों ने डॉ हबीबुल्ला का हो मत स्वीकार किया है। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि दीवान-ए-रसालत विदेशमंत्री को हैसियत से कार्य करता था विदेशी राज्यों से संपर्क बनाने एवं अन्य राज्यों से आनेवाले राजनयिकों की देखभाल करने की जिम्मेदारी इसी पर थी।
सम-उर-सुदुर धार्मिक मामलों की देखभाल का काम इसे सौंपा गया था। प्रजा में धर्मानुकूल आचरण की स्थापना करवाना, धार्मिक संस्थाओं एवं व्यक्तियों को दान देना, उनके भरण-पोषण की व्यवस्था करना, मस्जिदों और मकतबों की स्थापना एवं उनके रख-रखाव पर होनेवाले खर्च की व्यवस्था करवाना इसी विभाग का कार्य था। इस विभाग के नियंत्रण में ही जकात (सिर्फ मुसलमानों से लिया जानेवाला कर) से प्राप्त होनेवाली आय रहती थी।
काजी-उल-कुजात न्याय विभाग का सर्वोच्च पदाधिकारी काजी-उल-कुजात ही होता था। सामान्यतः न्याय विभाग और धर्म विभाग एक ही व्यक्ति के हाथों में रखे जाते थे। वह साम्राज्य
के समस्त न्यायिक व्यवस्था पर नियंत्रण रखता था तथा न्यायिक मामलों को निबटाने में सुल्तान की सहायता करता था।
अन्य विभाग एवं पदाधिकारी–उपर्युक्त अधिकारियों के अतिरिक्त सुलतान के अधीन अन्य पदाधिकारी भी थे। वकील-ए-दर शाही महल और सुल्तान की व्यक्तिगत सेवाको देखभाल करता था। अमीर-ए-हाजिव (बारबक) राजदरबार में अनुशासन बनाए रखता था। सरजांदर सुलतान के व्यक्तिगत अंगरक्षकों का प्रधान था। अमीर-ए-मजलिस राजकीय समारो का आयोजनकर्ता होता था। अमीर-ए-आखूर अश्वशाला का प्रधान तथा शाहना-ए-पील राजकीय हस्तिशाला का प्रधान था। अमीर-ए-कोही कृषि विभाग का प्रधान था। सुलतान एवं उसके राजमहल की व्यवस्था के लिए भी अनेक पदाधिकारी थे। बड़ी संख्या में गुलाम भी रखे जाते थे। फीरोजशाह तुगलक के समय में करीब 40,000 गुलाम उसकी व्यक्तिगत सेवा में थे। इन अधिकारियों को राज्य की ओर से पर्याप्त वेतन एवं सुविधाएँ दी जाती थीं। उच्च पदाधिकारियों को जागीर भी दी जाती थीं।
कारखाना -सल्तनतकालीन प्रशासनिक व्यवस्था में कारखानों का भी
वपूर्ण स्थान
था। इन कारखानों में शासक वर्ग की आवश्यकता की वस्तुएँ तैयार की जाती थीं अथवा
सुलतान एवं उसके दरबारियों की आवश्यकताओं की पूर्ति इन कारखानों (कार्यालय,
निर्माणशाला) द्वारा की जाती थी। फीरोजशाह तुगलक के समय में ऐसे 36 कारखानों का उल्लेख मिलता है। कारखाने दो प्रकार के थे रातिबी और गैर-रातिबी। रातिथी कारखाने में काम करनेवालों को निश्चित वेतन मिलता था, परंतु दूसरे वर्ग के कर्मचारियों का वेतन निश्चित नहीं था। प्रमुख कारखानों में पीलखाना, शराबखाना, शैयाखाना, जामदारखाना, फराशतखाना, रिकाबखाना इत्यादि थे। प्रत्येक कारखाने का प्रधान मुतशर्रिफ होता था, जो आय व्यय की सूचना नियमित रूप से वजीर के कार्यालय में भेजता था। मुतशरिफों के अलग दफ्तर हुआ करते थे। सैन्य व्यवस्था - नवगठित तुर्की-राज्य की सुरक्षा एवं विस्तार के लिए तथा बा आक्रमणकारियों का सामना करने एवं आंतरिक विद्रोहों के दमन के लिए सल्तनतकाल में सैन्य संगठन पर यथेष्ट ध्यान दिया गया। मंगोल आक्रमणकारियों के भय से भी सुदृढ़ सेना
की आवश्यकता पड़ी। सैन्य संगठन में तुर्क-सुलतानों ने मंगोलों की दशमलव प्रणाली को
अपनाया। मोटे तौर पर सल्तनतकालीन सेना को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता
है- हश्म-ए- कल्ब या केंद्रीय सेना और हश्म-ए-अतरफ, अर्थात प्रांतीय सेना शाही सेना की
घुड़सवार टुकड़ी सवार-ए-कल्ब कहलाती थी। इसके अतिरिक्त आवश्यकतानुसार अस्थायी
सैनिक भी बहाल किए जाते थे, जिन्हें कार्यविशेष पूरा होने पर बर्खास्त कर दिया जाता था।
जेहाद के अवसर पर इस्लामी स्वयंसेवकों की सेना भी तैयार की जाती थी।