BA PART 2 SEMESTER 3 BHAKTI MOVEMENT
भक्ति आन्दोलन (Bhakti Movement) दिल्ली सल्तनत के काल में कई हिन्दू सन्तों और सुधारकों ने समाज में धार्मिक सुधार लाने के लिये आन्दोलन चलाया उन्होंने
इसके लिये भक्ति मार्ग को अपनाया। अतः यह भक्ति आन्दोलन के नाम से प्रसिद्ध हुआ यह आन्दोलन कोई नया नहीं था। पहले पहल इसकी उत्पत्ति दक्षिण में हुई और इसका अधिवक्ता शंकराचार्य था। मध्यकाल में मुस्लिम धार्मिक प्रचारकों ने इस्लाम धर्म के प्रचार के लिये हर प्रकार के प्रयत्न किये इसलिये हिन्दू भक्ति आन्दोलन ने इस्लाम के खतरे से बचने के लिये अपने धर्म की कुछ कुरीतियों का अन्त करने के प्रयत्न किये। भक्ति समुदाय के कुछ प्रसिद्ध धार्मिक सुधारक रामा नन्द, कबीर, चैतन्य महाप्रभु, रविदास, नाम देव और गुरु नानक थे जो मुसलमान और ब्राह्मण कट्टर पंथियों की सार्थकता के विरुद्ध लड़े। भक्ति सुधारकों ने मनुष्य मात्र की समानता और प्रभु की भक्ति पर बल दिया। यद्यपि भक्ति सुधारकों के उपदेश छोटी-छोटी बातों
में एक-दूसरे से विभिन्नता रखते थे उनके मौलिक सिद्धान्त एक जैसे थे। उनके विचार निम्न लिखित थे: (1) उनका परमात्मा के प्रति अटूट भक्ति में विश्वास था उन्होंने कहा कि मनुष्य को तीव्र भक्ति के साथ प्रभु की महिमा का गायन करना चाहिये। ईश्वर और उसकी सृष्टि के लिये प्रेम उत्पन्न करना चाहिये। सब प्रकार से छलकपट झूठ, आडम्बर और क्रूरता को त्यागने से मनुष्य परमात्मा को पा सकता है। (2) भक्ति सम्प्रदाय ने गुरु भक्ति को बहुत महत्व दिया। गुरु ही अपने शिष्यों को सच्चा मार्ग दिखाता है। वह ही प्रेम का महान पाठ पढ़ाता है और परमात्मा को पाने के भेदों को खोल सकता है। (3) भक्ति के पक्ष में मनुष्य की अपनी इच्छा कोई स्थान नहीं रखती उसके विचार और भावनायें ईश्वर की इच्छा अनुसार होनी
चाहिये। (4) भक्ति सुधारको ने खोखले रीति रिवाजों, तीर्थ यात्राओं, व्रतों, माला फेरने और ऐसी ही दूसरे बाहरी कार्यों का विरोध किया। (5) भक्ति आन्दोलन जाति प्रथा का विरोधी था। इसके अनुसार सब व्यक्ति एक समान हैं और किसी को भी ऊंचा या नीचा नहीं समझना चाहिये। (6) भक्ति सुधारकों के अनुसार परमात्मा का निवास मनुष्य के हृदय में होता है न कि मूर्ति और मन्दिर में।
(7) उनके अनुसार मनुष्य के लिये मुक्ति प्राप्त करना तभी संभव है जब मनुष्य ईश्वर में विश्वास रखें, सत्य का पालन करे, मोह
और इच्छाओं का त्याग करें। साधु सन्तों की संगत करे और परमात्मा की इच्छा के आगे आत्मसमर्पण करे।
रामानन्द स्वामी (Ramanand Swami): भक्ति सुधारक रामानन्द का जन्म सम्भवतः चौदहवीं शताब्दी के आरम्भ में हुआ। वो रामानन्दस्वामी के शिष्य थे। उन्होंने अपने गुरु की भान्ति विष्णु मत का प्रचार किया। रामानन्द भगवान राम के उपासक थे। उनकी शिक्षाओं में यह एक विशेषता थी कि वे धर्म और जातिभेद को मोक्ष के रास्ते में बाधा नहीं समझते थे। उनके अधिकतर शिष्य निम्न जाति के लोग थे और वह सबसे प्रेम का उपदेश देते थे। रामानन्द से पहले किसी ने भी जाति प्रथा की इतनी कठोर शब्दों में निन्दा नहीं की थी। उन्होंने कहा
जातपात पूछे नहीं कोये हरि को भजे सो हरि का होये।
रामानन्द सम्प्रदाय के ग्रन्थ का नाम 'नामा जी का भक्त माल' है जिसमें वैष्णव भक्तों और महात्माओं के जीवन के बारे में लिखा है। उनके सबसे प्रसिद्ध शिष्य भक्त कबीर थे। डा. ताराचन्द ने रामानन्द को दक्षिण और उत्तरी भारत के भक्ति आन्दोलनों के बीच एक कड़ी का नाम दिया है। उनके एक भजन को सिक्खों के आदि ग्रन्थ में भी स्थान दिया गया है।
कवीर (Kabir): सन्त कबीर मध्य कालीन भारत के एक महान सन्त थे। इनका जन्म 1398 ई. में काशी में हुआ। कहा जाता है। कि वो एक ब्राह्मण विधवा के पुत्र थे परन्तु उनका पालन पोषण एक मुस्लिम जुलाहे नीरू और उसकी पत्नी नीमा ने बड़े प्यार से किया। उन्होंने उसका नाम कबीर रखा शब्द कबीर अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है महान कबीर का कपड़ा बुनने के में मन न लगा और वह अपना समय राम नाम के गायन में व्यतीत करने लगे। वो भगत रामानन्द के उपासक बन गये। कबीर की शादी लोई नामक कन्या से कर दी गई। उनके घर दो बच्चे हुए जिनके नाम कमाल और कमाली थे। परन्तु गृहस्थ जीवन से कबीर की भगवान की भक्ति में कोई बाधा न पड़ी। भगत कबीर ने अपने दोहों में व्यर्थ रीति रिवाजों, धार्मिक प्रथाओं, छूआछूत, जाति प्रथा और तीर्थ यात्राओं की घोर निन्दा की। कबीर हिन्दुओं की मूर्ति पूजा के विरोधी थे। उन्होंने मुसलमानों द्वारा कब्रों की पूजा, रोजे रखना और नमाजें पढ़ने की भी निन्दा की। उन्होंने कहा
कांकर पाथर जोरि के मस्जिद लई चुनाय ता चढ़ि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय
उन्होंने कहा कि राम रहीम, कृष्ण, करीम, काशी, मक्का सभी एक ही ईश्वर के रूप है। एक बार मुसलमान कट्टर पंथियों ने देहली के सुलतान ईब्राहीम लोधी को कबीर के विरुद्ध भड़काया। उन्होंने कहा कि कबीर मुसलमान हो कर इस्लाम के विरुद्ध प्रचार कर रहा है। कबीर जब सुल्तान के दरबार में उपस्थित हुआ तो सुल्तान ने उससे कहा कि क्या उसने मुसलमान धर्म त्याग दिया है तो कबीर ने उत्तर दिया कि न तो मैं हिन्दू हूं और न मुसलमान। मैं तो ईश्वर के उस स्वर्ग लोक में निवास करता हूँ जहाँ न कोई हिन्दू है और न कोई मुसलमान। मेरा काम तो ईश्वर भक्ति और मनुष्यों में भ्रातृभाव का प्रचार करना है। कबीर की शिक्षाओं का सार इस प्रकार है:
1. एक ईश्वर में विश्वास करना जो निरंकार है।
2. जात पात का खण्डन ।
3. हिन्दुओं और मुसलमानों में भ्रातृभाव की भावनायें उत्पन्न करना।
4. जातीय भेदभाव को त्याग कर मानव मात्र से प्रेम करना।
5. कट्टरपंथी मुल्लाओं और ब्राह्मणों का खण्डन करना।
6. ईश्वर भक्ति के साथ-साथ जीव जन्तुओं से भी प्यार करना।
7. कबीर को विश्वास था कि मनुष्य को अपने कर्मों का फल अवश्य मिलता है। उन्होंने कहा:
कविरा तेरी झोंपड़ी गलकटियन के पास। जो करेंगे सो भरेंगे तू क्यों भया उदास
कहा जाता है कि कबीर को 120 वर्ष की आयु में मुधेरे के स्थान पर मृत्यु हुई। उनके द्वारा रचत दोहे कबीर बीजक नामी पुस्तक में मिलते है। उनके दोहे सरल हिन्दी भाषा में है जो कि अत्यन्त लोकप्रिय । कबीर के विचारों का लोगों पर बहुत प्रभाव पड़ा। उनके अनुयायियों को कबीर पन्थी कहते हैं जो प्रायः हिन्दुओं को निचली जातियों में से है। कबीर के विचार सिक्खों में भी बहुत लोकप्रिय हुये। गुरु अर्जुन देव जी ने उनकी कुछ रचनाओं को आदि ग्रन्थ में विशेष स्थान दिया। गुरु नानक देव (Guru Nanak Dev): पंजाब के भक्ति सुधारकों में गुरु नानक देव जी का प्रमुख स्थान है। इनका जन्म
तलवंडी (ननकाना साहिब अब पाकिस्तान में) में हुआ। उनके पिता का नाम महत्ता कालू चन्द था जो कि बेटी क्षत्रिय था। बचपन से ही उनमें महान व्यक्ति होने के चिन्ह दिखाई देते थे। वह बचपन से ही सत्य की खोज में भ्रमणकारी साधु सन्तों को संगत में आये और उनसे धार्मिक विश्वासों और रीतियों का ज्ञान प्राप्त किया। उनके मन में एक प्रकार का धार्मिक असन्तोष उत्पन्न हुआ और अन्त मे निरन्तर समाधि अवस्था में रहने के पश्चात् उनको ज्ञान प्राप्त हुआ और उन्होंने जीवन के रहस्यों को अच्छी प्रकार जान लिया जिसकी उनको खोज थी। उन्होंने अपने विचार फैलाने के लिये दूर-दूर तक भ्रमण किये। वह सारे भारत में घूमने के अतिरिक्त श्रीलंका, ईराक, ईरान आदि देशों में भी गये। अपनी यात्राओं को समाप्त करने के पश्चात् वह करतार पुर (अब पाकिस्तान में) में रावी नदी के किनारे रहने लगे। करतारपुर में गृहस्थ जीवन के साथ-साथ उन्होंने अपने दिन प्रभु भक्ति और चिन्तन में बिताये। उन्होंने अपने अनुवाधियों को दिखाया कि इस संसार के मायाजाल में रहकर भी मनुष्य किस प्रकार पवित्र रह सकता है।
गुरु नानक का संसार के सिद्ध पुरुषों में बहुत उच्च स्थान है। उन्होंने प्रचार किया कि ईश्वर एक है। उसका नाम से सत्य है उसको कोई बराबरी नहीं कर सकता। गुरु नानक देव ने ईश्वर को अनुभव करने के लिये नाम के जाप पर बहुत बल दिया और यह ही एक आत्मसमर्पण का उपाय है। यह मन के मैल को दूर करता है। गुरु नानक के अनुसार सच्चा गुरू ही ईश्वर को पाने में मार्ग दर्शक का कार्य करता है। बिना गुरु के किसी ने भी परमात्मा को प्राप्त नहीं किया। गुरु नानक देव ने धर्म के खोखले रीति रिवाजों, दिखावे की प्रार्थनाओं, तप, तीर्थ यात्रा और व्रतों पर गहरी चोट की। उन्होंने जातपात को भी निन्दा की। उनका विश्वास था कि सभी मनुष्य ईश्वर को सन्तान है। उन्होंने मनुष्य मात्र में मातृभाव की भावना का प्रचार किया। गुरु नानक देव समाज सुधारक भी थे उन्होंने सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध भी आन्दोलन किया। नामदेव (Naam Dev): नामदेव महाराष्ट्र के भक्ति आन्दोलन के महान सन्त थे। उनका जन्म तेहरखीं। ब्दी में हुआ। वह
कपड़े सोने का (दरजी का) कार्य करते थे और हिन्दुओं की निचली जाति से थे। नामदेव विसोभा खेचर नामक एक प्रसिद्ध महात्मा के शिष्य
थे। उन्होंने अपने गीतों में अपने गुरु की महिमा को गाया है। नामदेव महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त ज्ञानेश्वर के प्रति बहुत निष्ठा रखते थे। नामदेव ने ईश्वर भक्ति पर बहुत बल दिया। इन्होंने मूर्ति पूजा और झूठी रस्मों और जातपात के बन्धनों का विरोध किया। नामदेव ने उत्तरी भारत में भी ईश्वर भक्ति और प्रेम का सन्देश पहुंचाया। उन्होंने पंजाब के जिला गुरदासपुर के गाव घुमान के स्थान पर एक प्रचार केन्द्र स्थापित किया। परन्तु अपने जीवन के अन्तिम दिनों में वह महाराष्ट्र में अपने जन्म स्थान पंडुपुर लौट गये और 1350ई. में 80 वर्ष की आयु में वही उनका देहान्त हुआ।
गुरु रविदास (Guru Ravi Dass): गुरु रविदास का जन्म सम्भवतः चौदहवीं शताब्दी में बनारस में हुआ। वो निचली जाति के चमार थे। रविदास बचपन से ही ईश्वर की आराधना में मग्न रहते थे। वो स्वामी रामानन्द के शिष्य बन गये। वह गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुये भी ईश्वर भक्ति में मग्न रहे। उन्होंने अपनी मीठी वाणी के द्वारा समाज के दलित और दुर्बल लोगों को उपदेश दिया कि वे मानव मात्र मे भ्रातृभाव उत्पन्न करने के लिये संघर्ष करें। उनका विचार था कि सत्य धर्म को कट्टरवादियों और साम्प्रदायिक भावनाओं ने जकड़ रखा था और इन्हीं के कारण समाज में ऊंचनीच का बोल बाला था। उनके उपदेश इस प्रकार थे
1. मनुष्य को शुद्ध अन्तः करण से ईश्वर के नाम का स्मरण करना चाहिये। 2. ईश्वर सर्वव्यापी है और हर मनुष्य में निवास करता है।
3. व्यक्ति को जातपात, छुआछूत और ऊंचनीच की भावनाओं का त्याग करना चाहिये।
रविदास कहते हैं कि जो व्यक्ति ईश्वर का सहारा छोड़ कर किसी और का आश्रय लेता है उसकी किसी जगह सुनवाई नहीं होती।
और उसे नर्क का मुंह देखना पड़ता है।
वो लिखते हैं:
"हर सू हीरा छोड़ कर करे आज की आस, वह नर दोज़ख जायेंगे बहुत सत भाखे रविदास'
रविदास सभी धर्मों को एक समान समझते थे वो लिखते हैं:
"मन्दिर मस्जिद एक है इनमें अन्तर नाही रविदास राम रहमान का झगड़ा कोह नाही"
"रविदास हमारा राम जोही सोई है रहमान कावा कांशी जाईये दोऊ एक समान। "
रविदास अपनी जाति और व्यवसाय पर गौरव करते थे और उन्होंने अपने व्यवसाय को कभी न छोड़ा। उनकी शिक्षाओं से प्रभावित होकर बहुत सी ऊंची जाति के लोग उनके शिष्य बन गये। उनकी कुछ रचनाओं को सिक्खों के गुरु ग्रन्थ साहिब में भी स्थान दिया गया है।