MA SEMESTER 3 SOCIAL LIFE OF INDIA HARRAPPAN SOCIETY
सामाजिक जीवन
परंपरागत परिवार ही सामाजिक इकाई था जो अवशेष मिले हैं, उनमें अलग परिवारों के रहने की योजना मिलती है। सैंधव समाज मातृप्रधान था, ऐसा अनुमान वहाँ से प्राप्त अवशेषों के आधार पर लगाया जाता है। मातृसत्तात्मक समाज द्रविड़ और प्राकू आर्य सभ्यता की विशेषता थी। सिंधुघाटी में समाज के अंतर्गत कई वर्ग थे- (क) पुजारी, पदाधिकारी, ज्योतिषी, जादूगर, वैद्य इत्यादि। ये लोग उच्चवर्गीय समझे जाते थे; (ख) कृषि व्यवसायी, कुंभकार, बढ़ई, मल्लाह आदि लोग निम्नवर्गीय समझे जाते थे। सब मिलकर सिंधुघाटी के लोग सुखी और संपन्न थे। यद्यपि वर्ग-विभाजन मौजूद था, फिर भी सामग्री की प्रचुरता के कारण भोजन का अभाव लोगों को नहीं होता था। वे युद्धप्रेमी नहीं और शांतिपूर्ण ढंग से अपना जीवनयापन करते थे। सार्वजनिक रूप से सुख-समृद्धि की प्राप्ति उनको संगठित सामाजिक व्यवस्था का लक्ष्य थी।
सिंधुघाटी से मिट्टी और धातुओं के बने हुए तरह-तरह के उपयोगी बरतन मिले। सामान ढोने के लिए टोकरियों (लकड़ी या बेत की) का व्यवहार होता था। फर्श पर बैठने के लिए वे चटाइयों का प्रयोग करते थे। पलंग और चारपाइयों से भी वे लोग परिचित थे। मिट्टी और पत्थर के द्वीपों का बहुत प्रचलन था। नारियाँ कमर में मेखला का व्यवहार करती थी। भिन्न-भिन्न ऋतुओं में भिन्न-भिन्न प्रकार की वस्तुओं का व्यवहार किया जाता था और ऋतु के अनुरूप वस्त्र भी पहने जाते थे। मातृदेवी को मूर्ति पर शिरस्त्राण के रूप में एक कुल्हाड़ी के आकार का अलंकरण है। कुछ स्त्री-मूर्तियों के सिर पर पगड़ी भी है। नुकीली टोपियों का व्यवहार होता था। टोपियों का व्यवहार स्त्री-पुरुष दोनों करते थे।
केशविन्यास में सिंधुघाटी सभ्यता अद्वितीय है। दर्पण और कंधियाँ भी खुदाई में मिली है। जो पुरुष दाढ़ी-मूँछ रखते थे, उनके मुख तथा शीश दोनों के केश मूर्तियों और मुद्राओं में सुव्यवस्थित ढंग से दिखाए गए हैं। वहाँ अस्तुरे भी मिले हैं। स्त्रियाँ बीच से माँग निकालकर चोटी करती थीं और कभी-कभी अपनी चोटी को शीश पर कई वृत्तों में लपेट लेती थी। कभी-कभी बालों का जूड़ा बनाकर पीछे फीते से बाँध लिया जाता था। खुदाई में शृंगार-प्रसाधन की सामग्री भी मिली है। काजल, पाउडर, सिंदूर आदि केअवशेष भी मिले हैं। लिपस्टिक जैसी सामग्री का भी व्यवहार होता था। स्त्री और पुरुष दोनों ही आभूषणों का व्यवहार करते थे। स्त्री मृणमूर्तियाँ आभूषणों से लदी देखी जाती है। एक मृणमूर्ति में पुरुष आभूषणयुक्त है। आभूषणों में कंठहार, कर्णफूल, हँसली, भुजबंध, कडे, अंगूठी, पनी पाजेब आदि व्यवहार में आते थे। वे विभिन्न धातुओं के बनते थे।
कपड़े के व्यवहार में ये लोग बड़े ही प्रवीण थे पुरुष प्रायः शाल की तरह कपड़े शरीर पर लपेटते यह शाल बाई कुहनी के ऊपर दाएँ हाथ के नीचे होकर शरीर पर पड़ा रहता । लोग रंगे हुए कपड़ों का भी व्यवहार करते थे। कताई-बुनाई और सिलाई का भी प्रबंध था। गरीब और धनी व्यक्तियों को वेशभूषा में काफी अंतर था। गरीब लोग साधारण कपड़े पहनते थे और धनी लोग शिल्प सुसज्जित और कलापूर्ण कपड़े सुइयों का भी यहाँ प्रयोग होता था। सिंधुघाटी के केशविन्यास और वेशभूषा से बाहरी सभ्यताओं के लोग भी प्रभावित हुए थे, ऐसा प्रमाणित है।
निम्नवर्ग के लोग मिट्टी या पौधे के आभूषण पहनते थे। धनी लोग सोने, हाथीदांत तथा अन्य बहुमूल्य पत्थरों के आभूषण पहनते थे। मालाओं के अंत में लगाने के लिए सोने तथा अन्य धातुओं की पट्टियाँ बनती थीं। त्रिकोण ढंग का शिरोभूषण भी प्रचलित था। उनके कलाप्रेम का सर्वोत्तम प्रमाण उनके आभूषण हैं।
सिंधुघाटी में बहुत सारे खिलौने भी मिले हैं, जो बहुत ही कौतूहलजनक है। एक बैल का-सा खिलौना है, जिसका सिर हिलता है। एक हाथी है, जिसका सिर दबाने से शब्द होता है। एक पशु ऐसा है, जिसके सींग तथा सिर तो भेड़ की तरह है, किंतु शरीर तथा पूँछ चिड़ियों-जैसी है। कुछ पक्षी पिंजरे में बंद दिखाए गए हैं। मिट्टी के झुनझुने भी बच्चों के बीच प्रचलित थे। सीटियाँ भी असंख्य मिली है। मनुष्य आकृति के मिट्टी के खिलौने भी यत्र-तत्र दीख पड़ते हैं। मैके को बौनों के रूप में कई खिलौने मिले थे। ऐसे बौने मिल से प्रमोद सामग्री में आते थे। गाड़ी के खिलौने के कई पहिए भी मिले हैं। हड़प्पा में ताम्र की एक छोटी सुंदर गाड़ी मिली है। चन्हुदार में भी मिट्टी की गाड़ियाँ मिली है। 'डर' में भी रथों का प्रचलन था। मैके महोदय उस रथ की तुलना सिंधुप्रांत की गाड़ियों से करते हैं। यहाँ के लोग मनोविनोद के लिए अनेक प्रकार के खेल-कूदों में भाग लेते थे। मछली पकड़ना और शिकार करना उनका प्रिय कार्य था। दो ताबीजों पर अंकित दृश्यों में एक हरिण तथा जंगली बकरा तौर से मारे जा रहे हैं। धनुष उनलोगों के शिकार खेलने का प्रमुख साधन था। दो प्रकार की गोलियों हाथ से बनाई जाती थी। इस ढंग की गोलियाँ सुमेर तथा तुर्किस्तान में भी प्रचलित थीं। भालों के फल, तलवारे तथा कटारे खुदाई में मिली है। काँटे द्वारा मछली मारी जाती थीं। शैली में ये कटि संसार के इतिहास में अपने ढंग के ही है। हड़प्पा में तांबे का एक सुंदर घड़ा प्राप्त हुआ है, जिसके अंदर बरतन, औजार और आभूषण मिले हैं। पक्षियों को लड़ाना भी उनके आमोद-प्रमोद का एक अंग था। एक मुद्रा में दो जंगली मुर्गों के लड़ने का सुंदर दृश्य है। बाघ और अन्य पशुओं की भिड़ंत के चित्रण भी यत्र-तत्र मिलते है। चौपड़, पासा तथा शतरंज भी ये लोग खेलते थे। गोलियों के खेल भी प्रचलित थे। हड़प्पा में प्राप्त एक मुद्रा पर एक व्यक्ति व्यायाम करते हुए दिखाया गया है।
प्रत्येक नगर का सुखी जीवन बहुत कुछ प्राकृतिक सुविधाओं पर निर्भर करता है। प्राचीन काल में सिंधुप्रांत की भूमि उपजाऊ थी और वहाँ वर्षा भी अच्छी होती थी। मोहनजोदारों की खुदाई में गेहूँ तथा जो मिले हैं। वहाँ गेहूँ, जौ, राई और मटर की उपज होती थी। हड़प्पा के लोग फलियाँ, खजूर, तिल और तरबूज से भी परिचित थे। शायद वे लोग नींबू से भी परिचित थे। चावल, दाल और सब्जी का भी व्यवहार वे लोग करते थे। पशुओं के दूध और घी वे लोग परिचित थे। मिठाई और रोटी बनाने के साँचे भी खुदाई में मिले हैं। अनाज कूटने और पीसने की सामग्री भी मिली है। बड़े-बड़े गोदामों में अनाज इकट्ठा करके रखा जाता था। गरीब लोग साधारण लिपे हुए गड्ढे में भी अपना अनाज रखते थे। तरह-तरह के जानवरों का पालन-पोषण होता था। होता था। मांस-मछली भोजन के मुख्य पदार्थ थे। मांस काटने के लिए पत्थर के औजार बनाए जाते थे। प्याला, थाली, चम्मच, तश्तरी आदि के प्रचलन का भी प्रमाण मिला है। ये लोग दही, मक्खन, मट्ठा, घी, आदि बनाना जानते थे। ये दूध का विविध उपयोग करते थे। भोजन में फलों का भी स्थान था मोहनजोदारो में शिलाजित मिला है, जिससे अनुमान लगाया जाता है कि ये लोग औषधि का भी व्यवहार करते थे। कर्नल स्यूयल का विश्वास है कि ये लोग हरिणों के सींग का चूर्ण बनाकर औषधि के रूप व्यवहार करते थे। समुद्रफेन भी औषधि के रूप में व्यवहूत होता था।
नगरों और मकानों के अवशेष इस बात को सिद्ध करते हैं कि वहाँ के लोग धनी और सुखी थे। व्यापारिक सभ्यता का विकास होने से नगरों को समृद्धि हुई थी।बौद्धिक प्रगति
विशेषकर ऐहिकता और गंभीर दर्शन तक ये लोग नहीं पहुंचे थे। इनकी चेतन अनुभूति अधिक गहरी नहीं थी। इनकी सभी कलाओं में सूक्ष्म एवं मनोरंजक लेखनकला थी। अक्षरों की बनावट चित्रलिपि जैसी है और सुमेर के अक्षरों से उनकी बड़ी समानता है। इस लिपि के अध्ययनार्थ विद्वानों के सारे प्रयत्न अब तक असफल सिद्ध हुए हैं। इसका चिह्न समूचे शब्द अथवा वस्तु को प्रकट करता है। लिपि की लिखावट दाहिनी से बाई ओर को है, परंतु कुछ लिखावट में ऐसा प्रयोग हुआ है जिसमें अभिलेख की पहली पंक्ति दाहिनी से बाई ओर को और दूसरी बाई से दाहिनी ओर को लिखी गई है। इस प्रणाली को 'बूस्ट्रोफेदन' कहते हैं। 'ब्राह्म' से इसका संबंध स्थापित नहीं किया जा सकता प्राप्त मुद्राओं और लिपि के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उनको भाषा पर्याप्त रूप से विकसित थी। संभव है कि ज्ञान-विज्ञान का भी समुचित विकास हुआ हो।
वहाँ पत्थर के बटखरे भी मिले हैं। ये सभी एक नियम के आधार पर निर्मित है। नाप-तौल को पद्धति के कुछ प्रमाण भी मिले हैं। खुदाई में नापने का डंडा भी मिला है। इससे सिद्ध होता है कि सिंधुघाटी में भी इस पद्धति का यूनिट 16 था। फुट और हाथ का भी सिंधुवासियों को ज्ञान था मापदंड के दो प्रकार मिले है, जिनमें एक कांसे का है। लिखने-पढ़ने का काम ये लकड़ी की तख्तियों पर करते थे। लकड़ी की कलमों का प्रयोग होता था। अध्यापन-शैली में खिलौनों का भी प्रयोग होता था। माप-तौल की प्रामाणिकता को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि वहाँ अंकगणित, दशमलव प्रणाली और रेखागणित के सिद्धांतों से लोग अवगत रहे होंगे।
ऋतुओं के गहन अध्ययन और ग्रह-नक्षत्रों के वैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर वे लोग बाढ़ आने का पता पहले लगा लेते थे। रोग और चिकित्सा का ज्ञान तो उन्हें था ही विज्ञान के ज्ञान का प्रमाण तो इससे भी मिलता है कि वे तरह-तरह के रंगों का निर्माण करने में समर्थ थे और कीमती पत्थरों को काटकर जेवरात आदि बनाते थे। ललितकला और चित्रकला में उनकी प्रवीणता उनके सौदर्योपासक होने का प्रमाण है। भक्तिमार्ग तथा पुनर्जन्यवाद जैसे दार्शनिक सिद्धांतों के कुछ चिह्न भी मोहनजोदारों में मिलते हैं।