MA SEMESTER 3 GUPTA SOCIETY CC8
सामाजिक अवस्था
गुप्त काल के उत्कीर्ण लेखों में जातियों की चर्चा कम और वर्णों का उल्लेख अधिक मिलता है। का आदर उनके अपने कर्तव्यपालन के कारण था। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र अपने-अपने वत कार्य करते थे। चांडाल, पच आदि जंगली जातियाँ समाज से बाहर रहती थीं। फाहियान के अनुसार ये लोग अन्त्यज थे और इनका स्पर्श भी नहीं होना चाहिए। नगर और गाँव में आने के समय में लोग लकड़ी बजाते थे। वर्णों और व्यवसायों का परिवर्तन होता था तथा अंतरजातीय विवाह और भोज की प्रथा बनी हुई थी। तत्कालीन लेखों और साहित्य में राजवंशों के विवाह संबंधों के भी उल्लेख मिलते हैं। उनलोगों में अंतरजातीय विवाह होते थे। क्षत्रिय गुप्तों का विवाह संबंध ब्राह्मण, वाकाटक और नाग राजाओं के साथ था। विधवा-विवाह और सती की प्रथा भी थी। बहुविवाह की प्रथा भी थी। कुमारगुप्त इसका उदाहरण है। समाज वर्णाश्रम पर आधुत था। राजा भी इसका पालन करते थे। राजाओं ने वर्णाश्रमधर्म को ठोस करने तथा जातियों को अलग-अलग कर्तव्यक्षेत्र में सक्रिय करने का प्रयास किया। अनमेल विवाह भी होता था। वर्णाश्रम व्यवस्था में व्यतिक्रम का प्रमाण भी फाहियान के वर्णन से मिलता है। उसने एक वर्ग के लोगों को दूसरे वर्ण का कार्य करते देखा। छुआछूत का रोग इसी काल में जड़ पकड़ रहा था। अनुलोम और प्रतिलोम विवाह भी प्रचलित थे। 'मृच्छकटिक' में हम देखते हैं कि चारुदत्त ने वसंतसेना से विवाह किया था। कालिदास के नाटकों में चार प्रकार के विवाहों का उल्लेख मिलता है। विधवाविवाह और बहुविवाह की प्रथाएँ प्रचलित थी। समाज में नारियों का स्थान सामान्य था। मात्र प्रभावतीगुप्त के सामाजिक अस्तित्व से हम साधारण नारियों का अनुमान नहीं लगा सकते हैं। वात्स्यायन के 'कामसूत्र' में आदर्श पत्नी का वर्णन है। धार्मिक कृत्यों में पति के साथ पत्नी का रहना आवश्यक था। 'मत्स्यपुराण' में कहा गया है कि पति को ईश्वर की तरह पूजना चाहिए। परदा प्रथा का कोई प्रमाण नहीं मिलता है। स्त्रियां सौंदर्योपासिका होती थीं। आभूषणों का विशेष प्रचलन था और इसका प्रमाण हमें 'अमरकोश' से मिलता है। कालिदास, शूद्रक आदि की रचना और तत्कालीन चित्रकला से इन सब बातों पर विशेष प्रकाश पड़ता है। सौंदर्य प्रसाधन की प्रचुर सामग्री उपलब्ध थी। कपूर, तेल, सुगंध, इत्र, संदल आदि का उल्लेख मिलता है। चारपाई पर बिछावन बिछाकर सोने का प्रमाण मिलता है। विवाह संबंधी निषेध के साथ भोजन संबंधी निषेध के भी नियम कट्टर होते गए। ब्राह्मणों की कट्टरता का उल्लेख हुएनसांग ने किया है। अस्पृश्य जातियों की संख्या में वृद्धि हुई। स्त्रियों की अवस्था में गिरावट आई।
समाज में ब्राह्मणों का स्थान ऊँचा था। वे परंपरागत संस्कृति के रक्षक थे। गुप्त प्रथा वैष्णवधर्म की अनुयायी थी और इस युग में ब्राह्मणधर्म का पुनरुत्थान हुआ। गुप्त राजाओं के अधीन देश की सामाजिक व्यवस्था भी ब्राह्मणधर्म अनुरूप ही हुई। वैश्य परिवार भी इस युग में दान किया करते थे। गुप्तों की दिग्विजय के परिणामस्वरूप भारतीय सामाजिक जीवन में एक नवीन स्फूर्ति का जन्म हुआ। ब्राह्मणों का समाज में उनकी योग्यता एवं बुद्धि के कारण सम्मान था। वर्णों तथा व्यवसायों का परिवर्तन अब भी संभव था, इसलिए समाज में अब भी थोड़ा-बहुत लचीलापन बचा हुआ था। ब्राह्मण तप और स्वाध्याय में लीन रहते थे।
जनता का भोजन साधारण तथा सात्त्विक था। लोग शाकाहारी थे। मांस, मदिरा आदि का प्रयोग चांडाल किया करते थे। लोगों पर जैनों और बौद्धों का प्रभाव अभी तक था। फाहियान के अनुसार मांस, मदिरा, लहसुन, प्याज आदि का प्रयोग केवल चांडाल ही किया करते थे। फाहियान ने चावल, गेहूँ, जौ, दाल, मक्खन, तेल तथा शक्कर के व्यवहार का उल्लेख किया है। 'रघुवंशम् में अनेक प्रकार के भोजनों का उल्लेख मिलता है। मांस, मछली और मदिरा का व्यवहार भी होता था। कालिदास के सभी ग्रंथों में इसका उल्लेख है। उच्चवर्ग की स्त्रियाँ भी मद्यपान करती थीं। लोग तरह-तरह के उत्सव भी मनाते थे।व्रत उपवास और प्रायश्चित भी समाज में प्रचलित थे। मनुष्य को जन्म से मृत्यु तक कई प्रकार के संस्कारों का संपादन करना पड़ता था। शकुन और अपशकुन पर लोगों का विश्वास था। ताबीज कांचने का उल्लेख रघुवंशम् में है। कंदुक और पासा खेलने का भी उल्लेख मिलता है। मनोरंजन में शिकार भी आता था। पेंड़ा लड़ाकर भी लोग अपना मनोरंजन करते थे। भविष्यवाणी में भी लोग विश्वास रखते थे। साधारण लोगों में शिष्टाचार, दान, अतिथिसत्कार आदि सद्गुण प्रचुर मात्रा में थे।
उपजातियाँ— गुप्तयुग में बहुत सारी उपजातियों का भी विकास हुआ। मगध, रथकार, कर्मकार, चर्मकार मणिकार, गोपाल, वणिक आदि बहुत सी ऐसी जातियों का विकास हुआ जो स्पष्टतः किसी वर्ग के अधीन नहीं आ सकती थीं। वैश्य भी शुद्रकन्या से प्रतिलोम विवाह करता था। कायस्थ की गणना भी द्विजाति में होती थी। कायस्थों का कोई अलग भेद नहीं था। गुप्तकाल में जो कोई लेखक का काम करता था, वह कायस्थ नाम से प्रसिद्ध था। दामोदरपुर ताम्रपत्रों से ज्ञात होता है कि प्रथम कायस्थ शासन में भाग लेता था तथा प्रांतीय सभा का वह भी एक सदस्य था। पुण्ड्रवर्धनमुक्ति में कायस्थ दत्तपरिवारों का उल्लेख हम पहले कर चुके हैं। 'प्रथम कायस्थ शब्द के प्रयोग से ज्ञात होता है कि उस समय कायस्थों का कोई समूह अवश्य रहा होगा। शूद्रक ने कायस्थों को न्यायालय लेखक कहा है (भो श्रेष्ठकायस्थी) कायस्थों का वर्ण निश्चित करना कठिन है।
कायस्थ गुप्तकाल में 'कायस्थ' का एक स्वतंत्र जाति के रूप में परिगणित होना सामाजिक इतिहास
के दृष्टिकोण से बड़ी महत्त्वपूर्ण बात है और चतुर्मणि नामक प्रसिद्ध ग्रंथ में भी जाति के रूप में कायस्थों का उल्लेख हुआ है। कुषाणकालीन मथुरा के एक लेख में तथा याज्ञवल्क्य स्मृति में कायस्थों का उल्लेख तो है, परंतु एक जाति के रूप में इसका विकास गुप्तयुग में ही हुआ। कायस्थ हो राजस्व और भूमि संबंधी हिसाबों का लेखा-जोखा रखते थे। न्यायाधिकरण में न्याय लिखने का काम भी वही लोग करते थे ये लोग लेखक, गणक, करणिक, पुस्तपाल, अक्षपटलिक, दिबिर, लिपिकीकरण आदि नाम से जाने जाते थे। प्रथमतः ये लोग सभी वर्णों से इस पेशे में आते थे, परंतु शनैः शनैः उन्होंने मूल वर्णों से अपना संबंध तोड़ लिया और समाज में अब उनका एक जाति के रूप में आविर्भाव हुआ और उन्होंने अपने लिए एक देवता का भी आविष्कार कर लिया, जिसका नाम हुआ चित्रगुप्त कायस्थ जाति में विभिन्न वर्गों के लोग थे, अतः उनको अलग जाति बन जाने के बाद वर्णव्यवस्था उनका समायोजन मुश्किल हो अंतर्गत उनका ब्राह्मणों के लिए यह कठिन था कि उन्हें किस वर्ण में रखा जाए। कालक्रमेण उन्हें द्विज और शुद्र दोनों श्रेणियों में अलग-अलग रखने की वकालत की गई। याज्ञवल्क्य और कल्हण के अनुसार प्रजा इस जाति से पीड़ित रहती थी। ये राजा के सहायक होते थे। वेदव्यास और औशनस स्मृति में कायस्थ को एक जाति के रूप में माना गया है। सामंतवादी विचारधारा के प्रसार के बाद विभिन्न स्थानों और क्षेत्रों में बंट जाने के कारण कायस्थों की भी उपजातियाँ बन गई और वे सामंतवादी पदवियों से विभूषित होने लगे। चन्देलों के महामंत्री और सेनापति श्रीवास्तव थे, चौहानों के माथुर और सेन कर्णाटों के करण कायस्थों के उत्थान से ब्राह्मणों के अस्तित्व को धक्का लगा। विद्या पर उनका एकाधिपत्य समाप्त हो गया और कायस्थ ब्राह्मणों के कोपभाजन बन गए।
दास प्रथा- शूद्रों का स्थान समाज में नीचा था शूद्र हेय दृष्टि से देखे जाने लगे। धीरे-धीरे कृषि, वाणिज्य और कारीगरी उनके हाथ आने लगी धरि-घरि वे धनी होने लगे। दंडविधान में शूद्रों को अधिक कठोर दंड दिया जाता था शूद्रों में भी पीछे भेद उत्पन्न हो गया। इसी युग में दास प्रथा के नियमों का भी विकास हुआ। ब्राह्मण दास नहीं हो सकते थे। ब्राह्मण और नारी की खरीद-बिक्री नहीं हो सकती थी, परंतु कोई नारी यदि 'दास' से विवाह कर लेती थी, तो वह 'दासी' हो जाती थी। यदि दासी अपने स्वामी से गर्भ धारण कर ले तो वह मुक्त हो जाती थी। इसका प्रमाण शुद्रक से मिलता है। दासों का उल्लेख यत्र-तत्र लेखों में भी मिलता है। अपने को बेचकर दास होनेवालों का उल्लेख है।