Blog picture

Asst. Professor (HoD)

Blog image DR. RAJESH KUMAR SINGH Shared publicly - Jun 20 2021 6:02PM

KRANTI FRANCE ME HE KYU HUI SEMESTER 5 PAPER 501 C11


क्रान्ति फ्रांस में ही क्यों ? (Why Revolution in France ?) : फ्रांस की क्रान्ति के कारणों का अध्ययन करने के बाद हमारे सामने यह प्रश्न उठता है कि सर्वप्रथम फ्रांस में ही क्रान्ति
 
क्यों हुई जबकि यूरोप के अन्य देशों की हालत फ्रांस से भी खराब थी ? यूरोप के इतिहास के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अन्य देशों की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक स्थितियों में वे सारे अवगुण मौजूद थे जिनके कारण फ्रांस में क्रान्ति हुई थी। स्वच्छन्द, निरंकुश राजतंत्र, भ्रष्ट चर्च, असन्तुष्ट मध्यमवर्ग, कर्तव्यहीन एवं अत्याचारी कुलीन वर्ग, पीड़ित कृषक एवं मजदूर वर्ग यूरोप के अन्य देशों में भी मौजूद थे। यूरोप के कुछ देशों में साधारण वर्ग की हालत और भी खराब थी। आस्ट्रिया, पोलैण्ड, प्रशा, रूस जैसे देशों में किसानों, मजदूरों, दस्तकारों तथा दासों पर जो अत्याचार हो रहे थे, उससे फ्रांस अभी भी बहुत अंश में अच्छा था। केवल आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन की बुराइयों के कारण ही क्रान्ति नहीं होती है। इसके लिए कुछ विशेष कारणों को होना जरूरी होता है। वास्तविकता तो यह है कि क्रान्ति के लिए जिन भौतिक परिस्थितियों और मानसिक जागरुकता की आवश्यकता होती है, वे सभी फ्रांस में एक ही साथ मौजूद थीं।
 
शासन व्यवस्था की खामियों फ्रांस की शासन व्यवस्था अत्यन्त ही विषम थी। वहाँ सत्ता का घोर केन्द्रीकरण हो चुका था। शासन-पद्धति में तड़क-भड़क अवश्य थी, लेकिन उसमें अव्यवस्था और गड़बड़ी के लक्षण मौजूद थे। इतिहासकार केटलबी ने कहा है कि “फ्रांस शिकायता और स्वतंत्रता, अनुदारता और उदारता, रोष और उत्प्रेरणा का वह समन्वय उपस्थित करता था जो क्रान्ति के लिए सर्वश्रेष्ठ सामग्री प्रदान करता है।" क्रान्ति के पूर्व फ्रांस में परम्परा, राज्यादेश, विशेषाधिकार, प्रान्तीय स्वतंत्रता, सामन्ती विशेषाधिकार और राजकीय शक्ति की जो मिली-जुली अव्यवस्था थी, उसे हम 'अतिव्ययी' अराजकता' और शक्तियों की 'विश्रृंखलता' की संज्ञा दे सकते हैं। यूरोप के अन्य देशों के जागरुक शासकों ने बदलती हुई परिस्थिति के अनुसार सुधार कर लिए थे, लेकिन फ्रांस के शासक अभी भी दिवास्वप्न देख रहे थे। न्याय तो एक परिहास मात्र था। जिस अपराध के लिए कुलीनों को माफ कर दिया जाता था, उसी अपराध के लिए जनसाधारण को फांसी की सजा दी जाती थी। राजा अपने को 'राज्य' मानता था और उसके 'शब्द' ही कानून थे। राजा के हाथों में राजनीतिक और प्रशासनिक शक्ति थी। प्रान्तों की शासन व्यवस्था भी गड़बड़ थी। न्याय व्यवस्था दोषपूर्ण थी। फ्रांस का शासन एक प्रकार से असमानता और निरंकुशता का मिश्रण था। राजा की दुर्बल नीति ने स्थिति को और भी बिगाड़ दिया था। इसका परिणाम यह हुआ कि लोगों के हृदय में शासन के प्रति सन्देह, अविश्वास और घृणा पैदा हो गया। यह एक सर्वमान्य सिद्धान्त है। कि कोई शासन तभी तक टिक सकता है जब तक उसे प्रजा का विश्वास प्राप्त हो। अविश्वास और घृणा ने विद्रोह को जन्म दिया ।
 
कानूनी विविधताः कानून की विविधता प्रशासन का सबसे बड़ा दोष था। देश में लगभग 400 प्रकार के कानून प्रचलित ये। एक ही तरह के अपराध के लिए अलग-अलग जगहों में अलग-अलग प्रकार के दण्ड दिए जाते थे। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि इस समय फ्रांस में गैर कानूनी गिरफ्तारी प्रचलित थी। समाचारपत्र स्वतंत्र नहीं थे और सरकार की आलोचना करने पर आलोचकों को कड़ी सजा दी जाती थी। न तो व्यक्तिगत स्वतंत्रता थी और न बन्दी प्रत्यक्षीकरण नियम ही था। सरकारी आदेश पर किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार कर मनचाही सजा दी जा सकती थी।
 
दोषपूर्ण सामाजिक संगठनः फ्रांसीसी समाज का ढाँचा सामन्तवादी था। विशेषाधिकार, रियायत और विमुक्ति सामन्ती समाज की मुख्य विशेषता थी। यूरोप के अन्य देशों में भी सामन्तवादी प्रथा थी, लेकिन उनकी स्थिति फ्रांस से बिल्कुल भिन्न थी। यूरोप के अन्य देशों में सामन्तों को अधिकार के साथ-साथ कुछ दायित्व भी थे। कर वसूलना, रियासतों में शान्ति कायम करना, रैयतों के मुकदमों की सुनवाई करना तथा युद्ध के समय राजा को सैनिक सहायता देना उनका प्रमुख दायित्व माना जाता था। इसलिए वहाँ के निम्नवर्ग में सामन्तों के विशेषाधिकारों के प्रति रोष नहीं था। साथ ही सामन्त शक्तिशाली भी थे। लेकिन फ्रांस में सामन्तों की स्थिति इसके ठीक विपरीत थी। लूई चौदहवें के समय सामन्तों को राजनीतिक रूप में शक्तिहीन कर दिया गया था। उनके अधिकरा छीन लिए गये थे। सामन्त इतने शक्तिहीन हो गये थे कि वे आवश्यकता पड़ने पर न तो राजा की मदद कर सकते थे और न प्रशासन के कार्य में हाथ ही बेटा सकते थे। इस प्रकार यदि फ्रांस में सामन्तवाद का राजनीतिक रूप नष्ट हो चुका था, फिर भी सामाजिक संस्था के रूप में अभी भी कायम था। कुलीन कर्त्तव्यहीन हो चुके थे लेकिन उनका अधिकार अभी भी कायम था। जब तक कुलीनों ने अपने कर्तव्यों का पालन किया, लोगों में किसी प्रकार का असन्तोष नहीं था। लेकिन जब दे कर्तव्य से विमुख हो गये, जनसाधारण को उनके विशेषाधिकार खटकने लगे। इसमें आश्चर्य नहीं कि किसान, मजदूर जो सामन्ती शोषण नीति के शिकार हो रहे थे, अपनी रक्षा के लिए संघर्ष आरम्भ किये। जनसाधारण अब कुलीनता के आधार पर सामन्तों और उच्च वर्ग को सम्मान देने के लिए तैयार नहीं था। सामाजिक विषमता ने प्रतिरोध की भावना को जन्म दिया और ढांचे में परिवर्तन की आकांक्षा को तीव्रतर कर दिया।
 
किसान तथा व्यापारियों का असन्तोष किसान कुठीनों की क्रूरता के जबर्दस्त शिकार हुए। किसान भूमिहीन थे और उत्पादन के साधनों से वंचित थे। फिर भी किसान अधिकांशतः स्वतंत्र थे और अन्य देशों के कृषकों की तुलना में उनकी दशा अच्छी थी। किसानों और सामन्तों के बीच संघर्ष अनिवार्य प्रतीत हो रहा था। फ्रांस के किसान कुलीनों के अत्याचारको ईश्वर की देन समझ कर स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। इंगलैण्ड के बाद फ्रांस यूरोप का सबसे बड़ा व्यापारी देश था। लेकिन व्यापार पर कई तरह के प्रतिबन्ध लगे हुए थे जिससे व्यापार की यथोचित प्रगति नहीं हो रही थी। व्यापारी वर्ग भी प्रशासन से काफी क्षुब्ध था।
 
मध्यम वर्ग का नेतृत्व : अकेले कृषक या व्यापारी वर्ग क्रान्ति करने में असमर्थ थे। उन्हें नेतृत्व की आवश्यकता थी। यह नेतृत्व उन्हें मध्यम वर्ग से मिला। फ्रांस का मध्यम वर्ग सुशिक्षित और साधन-सम्पन्न या मध्यम वर्ग भी अपनी सामाजिक स्थिति से असन्तुष्ट था और उसमें सुधार के लिए क्रान्ति करना चाहता था। मध्यम वर्ग के लोगों ने सामाजिक बुराइयों असमानता के विरुद्ध क्रान्ति का आह्वान किया। क्रान्ति का नेतृत्व इसी वर्ग के लोगों ने किया। इस प्रकार फ्रांस में क्रान्ति के लिए आवश्यक नेतृत्व मौजूद था। इसके साथ ही फ्रांस की जनता सुसंस्कृत और जागृत थी। अन्य देशों के लोगों की तुलना में वे प्रगतिवादी विचारधारा के समर्थक थे। ये यूरोप के अन्य देशों के लोगों की तरह अपने कष्ट को ईश्वरीय देन नहीं मानते थे और इसे दूर करने के लिए क्रान्ति करने को तैयार थे। अन्य किसी देश में जनमत इतना जाग्रतः और आलोचनात्मक नहीं था जितना फ्रांस में
 
सेना और चर्च में व्याप्त असन्तोष सेना और चर्च में भी असन्तोष फैला हुआ था। यदि प्रशासन को सेना का सहयोग प्राप्त होता तो बहुत सम्भव था कि क्रान्ति को कुचल दिया जाता। लेकिन सेना अपनी अवस्था से असन्तुष्ट थी। साथ ही सेना के सभी श्रेणियों में लोकतंत्रात्मक विचारों का प्रचार-प्रसार हो रहा था। सेना भी क्रान्ति का समर्थन कर रही थी और जब क्रान्ति का विस्फोट हुआ तो सैनिकों ने क्रान्तिकारियों का साथ दिया। यूरोप के अन्य देशों में ऐसी बात नहीं थी। सेना प्रशासन के साथ थी और विद्रोहियों को दबाने में सरकार का साथ देती थी। फ्रांस का चर्च स्वेच्छाचारी या। सांसारिकता और भ्रष्टाचार ने उसे महत्त्वहीन बना दिया था। धन, विशेषाधिकार और एकाधिकार ने उसकी जड़ उखाड़ दी थी। सन्देह और नास्तिकता ने उसे खोखला कर दिया था। उच्च पादरीवर्ग और निम्न पादरीवर्ग में मतभेद की खाई इतनी गहरी हो चली यी कि उसे अब पाटना मुश्किल था। निम्न पादरी वर्ग सुधारवादी आन्दोलन के समर्थक थे।
 
दोषपूर्ण आर्थिक संगठन फ्रांस का आर्थिक संगठन भी असमानता और पक्षपात के सिद्धान्त पर आधारित वा । : राज महल के अपव्यय के कारण खजाना खाली पड़ा हुआ था, दूसरी ओर कर का सारा बोझ निम्नवर्ग के लोगों को ढोना पड़ रहा था। उच्च वर्ग के लोग कर स मुक्त थे। राज्य की आय-व्यय का लेखा-जोखा नहीं होता था। एक ओर गरीब लोग भूख से तड़प रहे थे, दूसरी ओर वार्साय के महल में रंगरेलियों मनायी जा रही थीं। राज्य के कर्मचारियों और ठेकेदारों के अत्याचार से जनता कराह रही थी। उद्धार का मार्ग सिर्फ क्रान्ति ही हो सकती थी। विचारकों का प्रभाव जन आक्रोश को रूसो, बोल्तेयर जैसे विचारकों ने अपनी लेखनी द्वारा और भी प्रचलित कर
 
दिया। इन विचारकों ने अत्याचारी सामन्तशाही, दुर्बल शासन व्यवस्था, सामाजिक तथा चर्च की बुराइयों की ओर लोगों का
 
ध्यान आकृष्ट किया। उनके विचारों का प्रभाव समाज के सभी वर्ग के लोगों पर पड़ा। यूरोप के अन्य देशों में अभी तक
 
क्रान्तिकारी विचार नहीं पहुँच पाये थे।
 
अमरीकी स्वतंत्रता संग्राम का प्रभाव: अमरीकी स्वातंत्र्य संग्राम का गहरा प्रभाव फ्रांस के निवासियों पर पड़ा था। इस युद्ध में फ्रांस ने इंगलैण्ड के विरूद्ध अमेरिका का साथ दिया था। हजारों की संख्या में फ्रांस से स्वयंसेवक अमेरिका भेजे गये थे। इस युद्ध का घातक प्रभाव फ्रांस की अर्थव्यवस्था पर पड़ा। का राष्ट्रीय ऋण काफी बढ़ चुका था और सरकार दिवालिया हो रही थी। फ्रांस को कोई स्थायी लाभ नहीं हुआ । आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए स्टेट्स जनरल को बैठक राजा ने बुलाई। इस बैठक के साथ ही फ्रांस में क्रान्ति का श्रीगणेश हो गया। दूसरे, जब फ्रांस के स्वयंसेवक अमेरिका से लौटे तो वे अपने देश में भी जनतंत्र की स्थापना का प्रयास करने लगे, क्योंकि जनतंत्र में ही सभी वर्गों के हितों की रक्षा की जा सकती है। समानता, स्वतंत्रता और बन्धुत्व जनतंत्र में ही सम्भव है। वे अधिकारों की रक्षा के लिए लोगों को प्रोत्साहित करने लगे। उफायते ने अपने साथ अमरीकी स्वतंत्रता के घोषणा पत्र की एक प्रतिलिपि ताया था और फ्रांस में भी मानवीय अधिकारों की घोषणा करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित कर रहा था। फ्रांसीसियों में गणतंत्र की स्थापना के लिए उत्साह जागा और वे राजतंत्र को नष्ट कर जनतंत्र की स्थापना के लिए क्रान्ति करने को तैयार हो गये
 
राजा की अदूरदर्शिता : लूई सोलहवों की अदूरदर्शिता ने क्रान्ति को अवशम्भावी बना दिया। अठारहवीं शताब्दी में यूरोप के राजाओं ने अपने देश में सुधार किये। लेकिन लूई उस व्यवस्था को बदलने में असमर्थ था, जिसे यह पसन्द नहीं करता था। कुलीनों के विरोध के कारण वह शासन व्यवस्था के दुर्गुणों को दूर करने में असमर्थ रहा। वह न तो सेना का नेतृत्व कर सकता था और न राष्ट्र का पथ-प्रदर्शन नागरिकों और सैनिकों का कोई ऐसा समूह नहीं था, जो उसके विश्वास का पात्र बनता। कोई दूरदर्शी राजा ही राजमुकुट की रक्षा कर सकता था। फ्रांस का यह दुर्भाग्य था कि उसे कोई योग्य राजा नहीं मिला और फ्रांस में क्रान्ति हो गई।


Post a Comment

Comments (0)