CREMEA KA YUDH SEMESTER 5 PAPER 501 C11
क्रीमिया का युद्ध : कारण : परिणाम
(The Crimean war: Causes: Effects or Results) :
युद्ध के कारण (Causes of the war) : तुर्की-साम्राज्य के अन्तर्गत फिलिस्तीन में ईसाइयों के कुछ पवित्र स्थान थे जहाँ रोमन और ग्रीक पादरी रहते थे। 16 वीं शताब्दी से ही तुर्की के सुल्तान ने फ्रांस को इन धार्मिक स्थानों का तथा वहाँ के ईसाइयों का संरक्षक स्वीकार कर लिया था किन्तु 1789 ई० की क्रान्ति के कारण फ्रांसीसी सरकार संरक्षक का दायित्व नहीं निभा सकी। अतएव ग्रीक पादरियों ने लैटिन पादरियों के अधिकारों का अतिक्रमण कर फिलिस्तीन के पवित्र तीर्थस्थानों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। वे लोग रूस को अपना संरक्षक मानते थे।
1850 ई० में नेपोलियन तृतीय ने तुर्की के सुल्तान से लैटिन पादरियों के अधिकारों को वापस करने की माँग की इसके पीछे उसका राजनीतिक उद्देश्य था। उसका विश्वास था कि कैथोलिक पादरियों का पक्ष लेने से फ्रांस के कैथोलिक उसी प्रकार प्रसन्न होंगे जैसा कि 1849 ई० में पोप का पक्ष लेने से हुए थे। नेपोलियन अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए पादरी वर्ग का समर्थन आवश्यक समझता था। वह जानता था कि कैथोलिक पादरियों का पक्ष लेने से उसे रूस के साथसंघर्ष करना होगा। लेकिन उसे विश्वास था कि ऐसा कर वह नैपोलियन प्रथम की पराजय और 1840 ई० की छूटनीतिक पराजय का बदला ले सकेगा।
1852 ई० में नेपोलियन तृतीय ने कैथोलिक पादरियों के अधिकारों के संरक्षण का प्रश्न पुनः उठाया। ग्रीक और कैयौनिक पादरियों के बीच झगड़े का मुख्य विषय था, पवित्र मन्दिरों के मुख्य द्वार की कुंजी किसके पास रहेगी ? इसके अलावे वैदी के दो द्वारों में से एक की कुंजी कैथोलिक पादरियों के पास रहे या नहीं तथा पूजा स्थल में फ्रांस का राजनिक रहे थ नहीं। नेपोलियन ने कैथोलिक पादरियों के अधिकारों की वापसी की माँग की। आस्ट्रिया, स्पेन, पुर्तगाल जैसे कैथोलिक राष्ट्रों ने नेपोलियन का समर्थन किया। दूसरी ओर रूस के जार ने ग्रीक पादरियों का पक्ष लिया और लैटिन पादरियों को दी गयी रिवायतों को वापस खने के लिए जोर डाला।
तुर्की के सुल्तान के समक्ष एक विकट प्रश्न उठ गया था। वह रूस और फ्रांस में से किसी को असन्तुष्ट नहीं करना चाहता था। अतएव दोनों शक्तियों को खुश रखने के लिए उसने कैथोलिक और ग्रीक पादरियों के अधिकारों की वापसी का आश्वासन दिया। किन्तु दोनों को सन्तुष्ट करना एक कठिन कार्य था। धार्मिक प्रश्न के साथ क्रीमिया युद्ध के कुछ और महत्त्वपूर्ण कारण थे। प्रश्न केवल पादरियों के अधिकारों की वापसी और पवित्र स्थानों पर नियंत्रण का नहीं था, वास्तविक समस्या तो यह थी कि निकट पूर्व में फ्रांस अथवा रूस का प्रभाव अधिक होगा। बाल्कन-क्षेत्र में शक्ति सन्तुलन की समस्या थी । इंगलैण्ड और फ्रांस निकट पूर्व में रूस की शक्ति के विस्तार के विरोधी थे। इस प्रकार पूर्वी समस्या मूल रूप से एक. अन्तरराष्ट्रीय समस्या थी और धार्मिक स्थानों के नियंत्रण का प्रश्न युद्ध के लिए बहाना मात्र था।
तुर्की के सुल्तान ने फ्रांस की माँग को स्वीकार कर लिया था, इसलिए रूस का जार अप्रसन्न था और उसने के विरुद्ध कठोर नीति अपनायी। मार्च, 1853 ई० में उसने राजकुमार मैनशी कोब को इस आदेश के साथ कुस्तुन्तुनिया भेजा कि सुल्तान अपने साम्राज्य में रहनेवाले सभी ग्रीक ईसाइयों का संरक्षक रूस को मान ले। लेकिन तुर्की ने रूस के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। इसके बाद जार ने इंगलैण्ड के सामने तुर्की के बँटवारे का प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव के अनुसार बाल्कन राज्यों पर रूस का नियंत्रण रहता और मिस्र तथा क्रीट पर इंगलैण्ड का स्वामित्व स्थापित होता। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने इस प्रस्ताव को मानने से इनकार कर दिया। इस प्रकार रूस और इंगलैण्ड के सहयोग की सम्भावना समाप्त हो गयी। इंगलैण्ड ने कई कारणों से रूस के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था। पहला कारण यह था कि तुर्की का विभाजन इंगलैण्ड की परम्परागत नीति के विरुद्ध था। दूसरी बात यह थी कि इंगलैण्ड कोई ऐसा काम नहीं करना चाहता था जिससे फ्रांस के साथ उसका सम्बन्ध खराब हो । किन्तु सबसे महत्त्वपूर्ण कारण यह था कि इंगलैण्ड का जनमत इस नीति के विरुद्ध
जब इंगलैण्ड द्वारा रूस के प्रस्ताव को ठुकरा दिया गया तब रूस के जार निकोलस ने तुर्की के विरुद्ध आक्रामक कार्रवाई करने को सोचा। जुलाई, 1852 ई० में रूस की सेना ने प्रुथ नदी को पारकर मोल्डेविया और बालेशिया पर अधिकार कर लिया। रूस के जार ने अपने पक्ष में यह तर्क दिया कि उसका लक्ष्य तुर्की पर आक्रमण करना नहीं था, बल्कि यह तुर्की से अपनी माँग को स्वीकार करवाना चाहता था।
रूस की सैनिक कार्रवाई ने स्थिति को और जटिल बना दिया। इससे इंगलैण्ड और फ्रांस की चिन्ता बढ़ी। पानस्टन रूस के विरुद्ध फ्रांस के साथ मिलकर कार्रवाई करना चाहता था। किन्तु प्रधानमंत्री एबर्डीन ने युद्ध के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। आस्ट्रिया भी इस घटना को दिलचस्पी के साथ देख रहा था, क्योंकि यह संघर्ष उसकी सीमा के निकट हो रहा था। किन्तु यह युद्ध को रोकना चाहता था। इसी उद्देश्य से वियना में इंग्लैण्ड, फ्रांस, आस्ट्रिया और प्रशा के प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में तुर्की की समस्या से सम्बन्धित एक टिप्पणी तैयार की गयी जिसे 'बिपना नोट' कहते हैं। इसमें तुर्की तथा रूस से कैनाईजी और एड्रियानोपुल की सन्धि की शर्तों को पालन करने को कहा गया। रूस ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया किन्तु तुर्की ने इसे अस्वीकार कर दिया। इसके बाद रूस और तुर्की के बीच युद्ध अवश्यम्भावी हो गया। तुर्की ने रूस से अपना प्रदेश खाली करने को कहा और जब रूस ने ऐसा करने से इनकार कर दिया तो तुर्की ने अक्टूबर, 1853 ई० में रूस के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। इंगलैण्ड और फ्रांस ने अपना जहाजी बेड़ा डार्डेनल्स की ओर भेज दिया। 30 नवम्बर को रूस के जहाजी बेड़े ने साइनोप की खाड़ी में स्थित तुर्की के जहाजी बेड़े को नष्ट कर दिया। इस घटना के बाद रूसी तुर्की युद्ध ने यूरोपीय युद्ध का रूप धारण कर लिया।
साइनोप की पराजय ने इंगलैण्ड और फ्रांस के सामने एक कठिन प्रश्न उपस्थित कर दिया था। उन्हें विश्वास हो गया या कि यदि रूस इसी गति से आगे बढ़ता गया तो तुर्की का साम्राज्य अवश्य ही नष्ट हो जाएगा। इंगलैण्ड का लोकमत रू के विरुद्ध युद्ध चाहता था। विदेश सचिव पामर्स्टन भी युद्ध की सलाह दे रहा था। तुर्की में स्थित ब्रिटिश राजदूत भी युद्ध के पक्ष में था। इंगलैण्ड का जनप्रिय समाचारपत्र 'दी टाइम्स' ने भी युद्ध की माँग की उदारवादी तथा साम्राज्यवादी भित्र भित्र कारणों से युद्ध का समर्थन कर रहे थे। इस प्रकार इंगलैण्ड के सभी वर्ग के लोग युद्ध की मांग कर रहे थे। एवडॉन ने कहा था, "धीरे-धीरे तुर्की ने हमें इस स्थिति में पहुँचा दिया है जहाँ हमें उसकी सहायता करनी ही होगी।
के विरुद्ध युद्ध चाहता था लेकिन वह इंगलैण्ड का सहयोग चाहता था। इस प्रकार फ्रांस और इंगलैण्ड ने युद्ध में रूस के विरुद्ध तुर्की का समर्थन करने का निश्चखाली करने की मांग की गयी, लेकिन रूस ने इस माँग को अस्वीकार कर दिया। इसके बाद ही 28 मार्च, 1854 ई० को इंगलैण्ड और फ्रांस ने रूस के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। युद्ध में क्रांस और इंगलैण्ड के सम्मिलित हो जाने से शक्ति सन्तुलन बिगड़ गया। मित्रराष्ट्रों की सम्मिलित सेना के सामने रूस टिक न सका। मार्च, 1856 ई० की पेरिस की सन्धि के अनुसार युद्ध समाप्त हो गया। इस प्रकार मित्रराष्ट्रों की विजय हुई और रूस असफल रहा ।।
पेरिस की सन्धि (मार्च, 1856 ई०) : 30 मार्च, 1856 ई० को इंगलैण्ड, फ्रांस, ऑस्ट्रिया, रूस, तुर्की तथा साडीनिया पीडमीण्ट के प्रतिनिधियों ने पेरिस सन्धि पर हस्ताक्षर किये। इस सन्धि के अनुसार:
() कालासागर को तटस्य घोषित कर दिया गया। किसी भी देश का युद्धपोत काळासागर में प्रवेश नहीं कर सकता या। साथ ही किसी भी देश को कालासागर के तट पर शस्त्रागार बनाने की अनुमति नहीं दी गयी। लेकिन सभी राष्ट्रों के व्यापारिक जहाजों को आवागमन की अनुमति मिली।
(ii) डैन्यूब नदी का अन्तरराष्ट्रीयकरण कर दिया गया। इसका अर्थ था कि सभी राज्यों के जहाज इस नदी का उपयोग २०BO कर सकते थे।"
रही। (ii) मोल्डेदिया और वालेशिया के ऊपर रूसी संरक्षण समाप्त कर दिया गया। इन दोनों पर तुर्की की प्रभुता (iv) सर्विया की स्वतंत्रता की गारंटी दी गयी। तुर्की को कीमिया तथा कार्स चैटा दिया गया।
बनी
(v) तुर्की को यूरोप के राष्ट्र-समूह में सम्मिलित कर लिया गया। इसके अतिरिक्त, सभी राष्ट्रों के प्रतिनिधियों ने तुर्की की प्रादेशिक अखण्डता और स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने का आश्वासन दिया। (vi) तुर्की के सुल्तान ने ईसाई प्रजा के साथ अच्छा बर्ताव करने तथा उनकी दशा को सुधारने का वचन दिया ने तुर्की के ग्रीक ईसाइयों को पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता देने का वचन दिया ।
युद्ध के परिणाम :
(Effects of the war):
क्रीमिया युद्ध यूरोप के इतिहास में एक युगान्तकारी घटना मानी जाती है। इस युद्ध के व्यापक तात्कालिक और दूरगामी परिणाम हुए। इतिहासकार केटलबी ने क्रीमिया युद्ध के परिणामों का उल्लेख निम्नलिखित शब्दों में किया है, "क्रीमिया युद्ध के परिणामस्वरूप रूस की तुर्की सम्बन्धी योजनाओं को रोक दिया गया। रूस की महान मान हानि हुई। तुर्की को यूरोप की शक्तियों के संयुक्त संरक्षण में जीवन का नया पट्टा मिल गया। क्रीमिया युद्ध के कारण नेपोलियन तृतीय की पाक जम गयी। इंगलैण्ड के ऊपर भारी राष्ट्रीय ऋण हो गया और अस्ट्रिया ने एक महान देश (रूस) की शत्रुता मोत से ली । " इस युद्ध दूरगामी परिणाम भी महत्वपूर्ण थे। “नवीन इटली" का जन्म क्रीमिया के कीचड़ से ही हुआ था और के
कुछ अंश में नवीन जर्मनी का भी। तुर्की की अर्थ-व्यवस्था पर इस युद्ध का घातक प्रभाव पड़ा। रूस की अर्थव्यवस्था भी
इस युद्ध के कारण कमजोर हो गयी थी और जार अलेक्सान्द्र द्वितीय को अनेक सुधार करने पड़े थे। रूस का विस्तार यूरोप
की ओर रुक गया। अब वह एशिया की ओर बढ़ने लगा। बाल्कन-प्रदेशों में सुधार और पुनर्निर्माण की लहर दौड़ गई।
यूरोपीय शक्तियों ने वियना में जिस महल का निर्माण किया था, उसकी आधारशिला ही डोल उठी। यूरोप के प्रमुख देशों